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नय एवं निक्षेप
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करता है तथा व्यवहार नय पर्यायार्थिक नय की भांति भेद को विषय करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय को आत्माश्रित तथा व्यवहार नय को पराश्रित प्रतिपादित किया गया है- “आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहार नयः। 37 नय सिद्धान्त एवं शब्दशक्तियाँ
नय सिद्धान्त में नय के द्वारा कथन का अभिप्राय समझा जाता है । कथन के अभिप्राय हेतु संस्कृत साहित्य में अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना शक्तियों का प्रतिपादन हुआ है। जैन दर्शन में इन शक्तियों का कार्य नय सिद्धान्त के प्रयोग द्वारा सम्भव है। अभिधा वृत्ति के द्वारा वाक्य का जो मुख्य वाच्यार्थ है वही गृहीत होता है। दूसरे शब्दों में वाक्य का जो सीधा अर्थ है वही अभिधा शक्ति के द्वारा अभिधेय या वाच्य होता है। जैनदर्शन में ऋजुसूत्र नय के द्वारा इस अर्थ का ग्रहण किया जाता है। उदाहरण के लिए 'यहाँ संत विराज रहे हैं', यह वाक्य ऋजुसूत्र नय से सन्तों के यहाँ विराजने की सूचना मात्र दे रहा है। यही अर्थ अभिधा शक्ति से प्रकट होता है। लक्षणा शक्ति का प्रयोग तब होता है जब मुख्य अर्थ का बाध हो एवं कुछ शब्द जोड़ कर समीचीन अर्थ निकलता हो, उदाहरण के लिए 'गंगायां घोष':- इस वाक्य का मुख्यार्थ है गंगा में अहीरों की बस्ती है। किन्तु यह अर्थ बाधित होता है, क्योंकि गंगा के प्रवाह में बस्ती नहीं हो सकती । लक्षणा शक्ति से गंगा का अर्थ गंगा तट लेकर अर्थ की संगति बिठाई जाती है । व्यवहार नय में भी इस प्रकार की संगति होती है । व्यवहार नय में 'गंगायां घोषः' वही अर्थ देगा जो लक्षणा शक्ति के प्रयोग से घटित होता है । ऋजुसूत्र नय के उदाहरण में प्रयुक्त वाक्य “यहाँ सन्त विराज रहे हैं" वाक्य में 'यहाँ' का तात्पर्य तब स्पष्ट होगा जब इसमें ग्राम, नगर, स्थानक, मन्दिर आदि का अर्थ बोध होगा । व्यंजना शक्ति के द्वारा अभिधेय अर्थ से पूर्णतः भिन्न अर्थ प्रकट होता है। उदाहरण के लिए 'यहाँ सन्त विराज रहे हैं' इस वाक्य का व्यंजना शक्ति से अर्थ होगा- हमें दर्शन करने, चर्चा-वार्ता करने जाना चाहिए। यह अर्थ नैगम नय से सिद्ध हो सकता है। नैगम नय में ही यह शक्ति है कि वह विविध प्रकार के अर्थों को घटित कर देता है। इस प्रकार साहित्य-शास्त्र की दृष्टि से भी अर्थ घटित करने में नय सिद्धान्त का महत्त्व है।