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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
अज्ञान परम दुःख है। अज्ञान से भय उत्पन्न होता है । समस्त प्राणियों के लिए संसार-परम्परा का कारण अज्ञान ही है।
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जैनदर्शन के अनुसार अज्ञान का मूल कारण 'मोह' है। इसलिए मोह को भी दुःख का कारण कहा गया है। द्वितीय अध्ययन में ऋषि वज्जियपुत्त ऐसा ही कहते हैं - मोहमूलाणि दुक्खाणि, मोहमूलं च जम्मणं ।" सभी दुःखों के मूल में मोह है और मोह के कारण ही संसार में जन्म होता है।
जहाँ मोह होता है वहाँ कर्मबन्धन भी होता है और उन बद्धकर्मों का हमें फल भोगना होता है। इसलिए जब तक कर्म हैं तब तक दुःख है । महाकाश्यप ऋषि इसी सत्य का उद्घाटन करते हुए कहते हैं- कम्ममूलाइं दुक्खाई, कम्ममूलं च जम्मणं ।” सभी दुःखों का मूल कारण कर्म है तथा पूर्वकृत कर्म के कारण ही फल भोग हेतु जन्म होता है। कर्म भी दो प्रकार के होते हैं- पुण्य एवं पाप कर्म। इनमें मुख्यतः पापकर्म दुःख का कारण होता है, अतः मधुरायण ऋषि कहते हैं- पावमूलाणि दुक्खाणि, पावमूलं च जम्मणं ।" सभी दुःख पापमूलक होते हैं तथा जन्म का मूल भी पाप है। वे अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
संसारे दुक्खमूलं तु, पावं कम्मं पुरेकडं ।
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पावकम्मणिरोधाय, सम्मं भिक्खू परिव्वए ।।
संसार में दुःख का मूल पूर्वकृत पापकर्म है, पापकर्म का निरोध करने के लिए भिक्षु को सम्यक्रूप से परिव्रजन करना चाहिए । दुःख से रहित होना है तो पापकर्म का त्याग अनिवार्य है, क्योंकि पाप का सद्भाव होने पर दुःख अवश्य उत्पन्न होता है - सभावे सति पावस्स, धुवं दुक्खं पसूयते ।”
पाप का घात होने पर दुःख का उसी प्रकार नाश हो जाता है जिस प्रकार पुष्प का विनाश होने पर फलोत्पत्ति नहीं होती - पावघाते हतं दुक्खं, पुप्फघाते जहा फलं।" मूल का सिंचन करने पर फल की उत्पत्ति होती है, मूल का घात होने पर फल भी नष्ट हो जाता है- मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फलं ।” कई बार दुःखी व्यक्ति अपने दुःख का नाश करने के लिए दूसरों को दुःख देता है, किन्तु ऐसा करके वह अन्य दुःखों का बंध कर लेता है। 28 कूर्मापुत्र अध्ययन में उत्सुकता को भी