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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
के फल की प्राप्ति नहीं है। जीव का पुनर्जन्म नहीं होता है। पुण्य और पाप आत्मा का स्पर्श नहीं करते। पुण्य और पाप निष्फल हैं। " आत्मा के अकर्तृत्व का उल्लेख
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जैनदर्शन में आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व अंगीकार किया गया है, किन्तु बीसवें उक्कल अध्ययन में दण्ड उत्कट आदि पाँच प्रकार के उत्कटों (उत्कलों) के अन्तर्गत देश उत्कट का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि इसके अनुसार जीव या आत्मा का स्वरूप तो अंगीकार किया जाता है, किन्तु उसका कर्तृत्व अंगीकार नहीं किया जाता । सांख्यदर्शन इसी प्रकार की मान्यता रखता है, अतः प्रतीत होता है कि यह सांख्यदर्शन की मान्यता है, किन्तु पूरणकाश्यप और पकुध कात्यायन का मत अक्रियावादी था, अतः सम्भव है यह मान्यता इन दार्शनिकों की भी रही हो ।
सृष्टिविषयक मत: पुरुषवाद एवं जल से सृष्टि की उत्पत्ति
चूंकि इसिभासियाइं में अनेक ऋषियों के वचन उपलब्ध हैं, अतः इसमें लोक या सृष्टि के सम्बन्ध में जैन दृष्टि से भिन्न मत भी प्राप्त होते हैं । दकभाल अध्ययन में पुरुषवाद के अनुसार पुरुष किं वा ईश्वर ही प्रधान एवं ज्येष्ठ है, वह ही जगत् का कर्ता है। पुरुष ही सब धर्मों (पदार्थों) का आदि कारण है।" ऋग्वेद में भी यह कथन प्राप्त होता है कि पहले यह सब पुरुष ही था एवं आगे भी पुरुष ही होगा वह अमृतत्व का ईश है, किन्तु अन्न से अभिव्यक्ति को प्राप्त होता है। 2 श्री गिरि अध्ययन में वैदिक मान्यतानुसार कथन है कि पहले यहाँ सब ओर जल था। फिर यहाँ अंडा संतप्त हुआ, उससे लोक उत्पन्न हुआ। " यहाँ उसने श्वास लिया अर्थात् सृष्टि उत्पन्न हुई। यह वरुण-विधान है। ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त में कहा गया है कि पहले हिरण्य मार्ग ही था जो समस्त प्राणियों का स्वामी था । 14 श्री गिरिऋषि विश्व को मायारूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि यह संसार अतीत में मायारूप नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान में मायारूप नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्य में मायारूप नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है ।
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लोक एवं पंचास्तिकाय की शाश्वतता
जैनदर्शन सृष्टि को अनादि अनन्त स्वीकार करता है । वह यह नहीं मानता कि