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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
होकर पापकर्म करते हैं उनका पाप वैसे ही बढ़ता है, जैसे ऋण लेने वाले व्यक्ति का ऋण बढ़ता है। जो जीव वर्तमान सुख की खोज करते हैं, उसके परिणाम को नहीं देखते हैं वे बाद में उसी प्रकार दुःख प्राप्त करते हैं, जैसे कांटे से बिंधी हुई मछली। कर्म-सिद्धान्त ___ इसिभासियाइं में कर्म-सिद्धान्त के इस नियम की भूरिशः पुष्टि हुई है कि जो जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसके अनुसार उसे फल-प्राप्ति होती है। चतुर्थ अध्ययन में अंगर्षि कहते हैं- सुकडंदुक्कडं वावि कत्तारमणुगच्छति। सुकृत हो या दुष्कृत सभी कर्म कर्ता का अनुगमन करते हैं, अर्थात् कर्ता को उनके फल की प्राप्ति होती है। मधुरायण ऋषि कहते हैं कि आत्मकृत कर्मों का फल आत्मा स्वयं भोगती है, अतः आत्मा के हित के लिए पापकारी कार्यों का वर्जन करना चाहिए।" हरिगिरि अध्ययन में भी कहा गया है कि प्राणी जो नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्म करता है उसी के अनुसार नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है। तीसवें वायु अध्ययन में भी कहा गया है कि जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल प्राप्त होता है। उसी प्रकार नाना प्रयोगों से निष्पन्न सुखद या दुःखद कर्म किया जाता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है- जारिसंकिज्जते कम्मं, तारिसं भुज्जते फलं।” जैनदर्शन में अष्टविध कर्मों का विवेचन प्राप्त होता है। इसिभासियाइं में अष्टविध कर्म शब्द तो आया है, किन्तु इन कर्मों के नामों का उल्लेख नहीं हुआ है। आठ कर्म हैंज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को आवरित करता है, दर्शनावरण कर्म जीव के दर्शन गुण (स्वसंवेदन) को आवरित करता है, वेदनीय कर्म सुख-दुःख का वेदन कराता है, मोहनीय कर्म दृष्टि एवं आचरण को मलिन करता है, क्रोध, मान, मायादि विकारों को प्रकट करता है। आयु कर्म के कारण मनुष्यादि भव की एक निश्चित अवधि के लिए प्राप्ति होती है। नामकर्म से शरीर, इन्द्रियादि की प्राप्ति होती है। गोत्रकर्म से जीव में उच्चता एवं नीचता के संस्कार आते हैं तथा अन्तराय कर्म के कारण जीव के दान (उदारता), लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य (शक्ति) आदि गुण बाधित होते हैं।