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'इसिभासियाई'का दार्शनिक विवेचन
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प्रत्येकबुद्ध थे। इन ऋषियों के साथ अर्हत् विशेषण लगाना निश्चित रूप से जैन परम्परा की अत्यन्त उदार दृष्टि है। चौथे अंगरिसी (अंगर्षि) के साथ 'भारद्वाज अरहता इसिणा बुइतं' वाक्यांश के माध्यम से भारद्वाज विशेषण उनके वैदिक होने का संकेत करता है। अध्याय पच्चीस के अंबड अध्ययन में अंबड के साथ मात्र 'परिव्राजक' विशेषण लगाया गया है, अर्हत् विशेषण का प्रयोग नहीं है। इसका अर्थ है कि अंबड अर्हत् नहीं था। 32वें पिंग अध्ययन, 34वें ऋषिगिरि अध्ययन एवं 37 वें श्रीगिरि अध्ययन में 'माहण परिव्वायगेणं अरहता इसिणा बुइतं' वाक्यांश द्वारा सम्बद्ध ऋषियों को ब्राह्मण परिव्राजक अर्हत् स्वीकार किया गया है। अर्थात् ये ऋषि वैदिक हैं। 38 वें साचिपुत्र अध्ययन में साचिपुत्र को 'बुद्ध अर्हत्' कहा गया है। इससे उनके बौद्ध होने की सूचना मिलती है। यह समस्त कथन अध्ययनों में प्रयुक्त ऋषियों के विशेषणों के आधार पर है। विद्वानों ने इनके अतिरिक्त भी आधार मानकर इन्हें तत्तत् परम्पराओं में रखा है।
दार्शनिक विवेचन यद्यपि इसिभासियाइं अध्यात्मप्रधान ग्रंथ है, तथापि इसमें हमें कुछ दार्शनिक सन्दर्भ भी प्राप्त होते हैं। विशेषतः चार्वाक दर्शन के पंचभूतवाद तथा देहात्मवाद सिद्धान्त का एवं आत्मा के अकर्तृत्व का उल्लेख सम्प्राप्त है। चार्वाक सम्मत पंचभूतवाद तथा देहात्मवाद
बीसवें उक्कल अध्ययन में चार्वाक मत की प्रस्तुति हुई है। इस अध्ययन में समझाया गया है कि जैसे दण्ड का आदि, मध्य और अन्त मिलकर दण्ड संज्ञा प्राप्त करता है वैसे ही शरीर से भिन्न आत्मा नामक तत्त्व नहीं है। शरीर का नाश होने पर संसार का नाश हो जाता है। आगे कहा गया है कि जीव पांच महाभूतों के स्कन्धों का समुदाय मात्र है। महाभूतों का नाश होने पर संसार की परम्परा का नाश हो जाता है। सम्पूर्ण त्वचा पर्यन्त तक जीव है। यह शरीर जीता है तब तक प्राणी जीता है, यह उसका जीवन है। जैसे दग्ध बीजों में पुनः अंकुरों की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही शरीर के जल जाने पर पुनः शरीर उत्पन्न नहीं होता, इसलिए जो अभी मिला है, वही जीवन है। चार्वाक मत के ही सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए उक्कल अध्ययन में कहा गया है कि परलोक नहीं है, सुकृत और दुष्कृत कर्मों