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नय एवं निक्षेप
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निरूपण आगे किया गया है। __ व्यापकरूप में सोचें तो नयदृष्टि में आग्रह नहीं होता, बिना आग्रह के सत्य को समझने की दृष्टि नयदृष्टि है। यह सामान्य जीवन में भी उपयोगी है, दार्शनिक क्षेत्र में भी इसकी उपयोगिता है तो आध्यात्मिक क्षेत्र में भी नयदृष्टि का महत्त्व है। सामान्य जीवन में एक के द्वारा दूसरे व्यक्ति के कथनों का सही परिप्रेक्ष्य में सही दृष्टि से अर्थ समझना आवश्यक होता है। यदि दोनों की दृष्टि भिन्न हो एवं दोनों एक-दूसरे की दृष्टि का ठीक से बोध न रखते हों तथा अपने दृष्टिकोण का आग्रह हो तो उनमें टकराव उत्पन्न हो जाता है। दार्शनिक क्षेत्र में भी इसी प्रकार नयदृष्टि से एक-दूसरे के दृष्टिकोण को या प्रतिपादन को न समझने के कारण विरोध या विवाद उत्पन्न होते हैं। विभिन्न दार्शनिक मतों का अपने-अपने दृष्टिकोण से इसीलिए खण्डन भी किया गया है। आचार्य शंकर के द्वारा जैनदर्शन के स्याद्वाद सिद्धान्त का खण्डन इसका एक उदाहरण है। यदि इस सिद्धान्त को उन्होंने सही रूप में समझा होता तो उन्हें अपने तर्क निर्बल नज़र आते। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी धर्माराधन की बाह्य क्रियाओं एवं राग-द्वेष निवारण की अन्तः साधना को लेकर कई बार मतभेद उत्पन्न होते हैं। कोई बाह्य क्रियाओं को अधिक महत्त्व देता है तो कोई आन्तरिक साधना के समक्ष इनकी नगण्यता मानता है, किन्तु निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि का समन्वय किया जाए तो इन दोनों का समन्वय उपस्थित हो जाता है। बाह्य क्रियाएँ यदि अन्तःसाधना का साधन बनती हैं तो उनकी अपनी उपयोगिता है। धर्म-क्रियाएँ साधन हैं तथा आन्तरिक विकारों की शुद्धि साध्य है। साधन को साध्य की सिद्धि के अनुकूल बनाने की आवश्यकता है। नय सिद्धान्त की व्यावहारिकता __वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक होती है। प्रमाण के द्वारा वस्तु के द्रव्य एवं पर्याय इन दोनों स्वरूपों का ज्ञान किया जाता है, जबकि नय में कभी पर्यायों का तो कभी द्रव्य का ज्ञान होता है। इसीलिए कहा जाता है के नय के द्वारा वस्तु के एक अंश को जाना जाता है। वस्तु के एक अंश का ज्ञान वाक्यों के द्वारा तो होता ही है, किन्तु जीवन-व्यवहार में भी इस प्रकार का ज्ञान देखा जाता है। व्यक्ति कई बार पर्याय को प्रधान बनाकर वस्तु का ज्ञान करता है, तो अनेक बार द्रव्य को प्रधान बनाकर वस्तु