________________
238
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
है। जब सम्पूर्ण अंश को जान लिया गया तो एक अंश को जानने की बात महत्त्व नहीं रखती । इसलिए नय को प्रमाण से स्वतन्त्र ज्ञान का साधना मानना चाहिए। प्रमाण से भी जाना जाता है और नय से भी। किन्तु नय में यह वैशिष्ट्य होता है कि वह एक दृष्टि से जानकर अन्य दृष्टियों के प्रति उदासीन रहता है। 2. श्रुतमूला नया सिद्धाः वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत्- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.6.27
नय श्रुतज्ञानमूलक होते हैं तथा उनकी प्रामाणिकता प्रमाणवत् है।
उपर्युक्त वाक्यों से विदित होता है कि नय का प्रयोग श्रुतज्ञान के द्वारा जाने गए विषय में होता है। श्रुतज्ञान से जिस विषय को जाना गया है, उसके एक अंश का ज्ञान नय है। आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाण एवं नय में भेद प्रतिपादित करते हुए कहा है कि धर्म और धर्मी के समूह का नाम वस्तु है। जो ज्ञान धर्म या केवल धर्मी को ही मुख्य रूप से जानता है वह नय है और जो दोनों को ही मुख्य रूप से जानता है वह प्रमाण है।' प्रमाण एवं नय में एक प्रमुख भेद यह है कि प्रमाण के द्वारा जहाँ वस्तु के द्रव्य एवं पर्याय इन दोनों स्वरूपों को समानरूप से जाना जाता है वहाँ नय के द्वारा द्रव्य एवं पर्याय में से किसी एक को प्रधानता से जाना जाता है। इसीलिए उसे वस्त्वंशग्राही कहा गया है। भट्ट अकलंक ने नय एवं प्रमाण में भेद का निरूपण करते हुए कहा है कि सम्यग् अनेकान्त प्रमाण है तथा सम्यग् एकान्त नय है।" अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक होता है। उसमें जो एकान्त है वह जब सापेक्ष होता है तो सम्यक् कहलाता है एवं वह नयरूप होता है तथा जो अनेकान्त प्रमाणरूप होता है वह भी सम्यक् होता है। अतः नय को सम्यग् एकान्त तथा प्रमाण को सम्यक् अनेकान्त कहा गया है। धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने भी प्रमाण एवं नय में भेद स्पष्ट करते हुए कहा है- किं च न प्रमाणं नयः, तस्यानेकान्तविषयत्वात्। न नयः प्रमाणं, तस्यैकान्तविषयत्वात्। (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृ. 516) प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय अनेकान्त है तथा नय प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय एकान्त है।
नय को न तो प्रमाण माना गया है, न ही अप्रमाण। जिस प्रकार समुद्र का अंश न तो समुद्र कहा जा सकता है और न असमुद्र। वह समुद्र का अंश होते हुए भी समुद्र नहीं है उसी प्रकार वस्तु के एक अंश का ज्ञान करने वाले नय को प्रमाण नहीं