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श्रुतज्ञान का स्वरूप
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समझने में सहायक हैं तथा ये आत्मस्वरूप को समझने में भी सहायक हैं, इसलिए ये श्रुत हैं । शब्द रूप आगम साधन हैं तथा अर्थरूप अनुभवात्मक ज्ञान साध्य है। विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि कहते हैं कि प्रत्येक शब्द ज्ञान श्रुतज्ञान नहीं होता, जो ज्ञान आप्तोपदेश या श्रुत से उत्पन्न होता है, वही श्रुतज्ञान कहलाता है, अन्य शब्दज्ञान मतिज्ञान है । मतिज्ञान इन्द्रिय से, मन से अथवा दोनों से उत्पन्न होता है। __उमास्वाति तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन एवं जिनवचन को श्रुतज्ञान का पर्यायवाची प्रतिपादित करते हैं।' ये सभी पर्यायवाची शब्द इस तथ्य का स्थापन करते हैं कि राग-द्वेष के विजेता 'जिन' अथवा आप्त पुरुषों के उपदेश ही श्रुतज्ञान की श्रेणी में आते हैं। किन्तु यह श्रुत द्रव्यश्रुत है, और यह भावश्रुत को जन्म दे सकता है। __श्रुतज्ञान के दो पहलू हैं। पहला, जब यह किसी आप्त पुरुष के द्वारा बोला जाता है और दूसरा, जब वह किसी श्रोता के द्वारा आत्मज्ञान के लक्ष्य से समझा जाता है। ये दोनों ही ज्ञान श्रुतज्ञान हैं। जब कोई आप्त वाक्य उच्चरित होता है अथवा लिखित होता है, तो उसको भी लोग श्रुतज्ञान कहते हैं, क्योंकि इस श्रुतज्ञान से आत्मा में वास्तविक श्रुतज्ञान प्रकट होता है।
वेद के अर्थ में प्रयुक्त 'श्रुति' शब्द से इस 'श्रुत' शब्द का साम्य है। इन दोनों में आप्तवचन होने की समानता है। मीमांसा दार्शनिकों के अनुसार श्रुति अथवा वेद का कोई रचयिता नहीं है, वह अपौरुषेय है, जबकि न्यायदार्शनिक मानते हैं कि वेद की रचना ईश्वर ने की है। जैन दर्शन में यह स्वीकार किया गया है कि जब कोई केवली या तीर्थकर समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए सत्य कथन करते हैं तो उसे श्रुत कहा जाता है और जब उसका तात्पर्य किसी व्यक्ति के द्वारा अनुभव किया जाता है तो उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान को आगम प्रमाण के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। वादिदेवसूरि कहते हैं कि वास्तव में तो आप्तवचनों को सुनकर जो अर्थ का संवेदन होता है वह आगम प्रमाण है, किन्तु उपचार से आप्तवचन को भी आगम प्रमाण कहा जा सकता है। श्रुति एवं श्रुत में बड़ा अन्तर यह है कि श्रुति का प्रत्येक जीव में होना अनिवार्य नहीं माना गया है, जबकि जैन