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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
मिट्टी नीचे बैठ जाए तो पानी निर्मल दिखाई देता है, किन्तु गिलास के हिलने पर पानी में मिट्टी के पुनः मिलने से पानी गंदला होने की सम्भावना रहती है । यही स्थिति औपशमिक सम्यग्दर्शन की है, जो सत्ता में स्थित अनन्तानुबन्धी चतुष्क एवं दर्शनमोह की प्रकृतियों के उदय में आने पर समाप्त हो सकता है। यदि गिलास की मिट्टी को हटा कर पानी को पूर्णतः निर्मल कर लिया जाए तो हम उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन को समझने का उदाहरण मान सकते हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शन के पुनः अशुद्ध होने या समाप्त होने की गुंजाइश नहीं होती । औपशमिक सम्यग्दर्शन एक भव में जघन्य एक बार, उत्कृष्ट दो बार तथा अनेक भवों की अपेक्षा जघन्य दो बार एवं उत्कृष्ट पाँच बार प्राप्त हो सकता है । औपशमिक सम्यग्दर्शन हुआ है तो वह एक बार अवश्य ही समाप्त होता है, क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व का काल जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। ऐसे जीव की भी अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में तो मुक्ति निश्चित ही है।
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सम्यक्त्व का तृतीय प्रकार है क्षायोपशमिक । इस सम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय इन छह प्रकृतियों का क्षयोपशम ( उदय के अभाव रूप क्षय और सत्ता में उपशम ) हो जाता है, किन्तु सम्यक्त्वमोहनीय का वेदन रहता है। यह सम्यक्त्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट 66 सागरोपम से अधिक काल तक रहता है। यह सम्यक्त्व एक भव में जघन्य एक बार, उत्कृष्ट पृथक्त्व हजार बार तथा अनेक भवों की अपेक्षा जघन्य दो बार तथा उत्कृष्ट असंख्यात बार प्राप्त हो सकता है।
सम्यक्त्व के कुछ अन्य प्रकार भी हैं, जिनमें उपशम सम्यक्त्व से गिरता हुआ जीव जब मिथ्यात्व को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता है तो जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट छह आवलिका तक वह सास्वादन सम्यक्त्व का आस्वादन करता है । सम्यक्त्व मोहनीय का वेदन होना वेदक सम्यक्त्व है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि अन्य छह प्रकृतियों का तब उपशम या क्षय होता है।
सम्यग्दर्शन का महत्त्व
सम्यग्दर्शन अध्यात्म साधना का मूल आधार है। इसके होने पर आत्मा में एक नवीन आलोक का अनुभव होता है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है