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नय एवं निक्षेप
प्रमाण की भाँति नय को भी वस्तु के ज्ञान का साधन माना गया है । तत्त्वार्थसूत्र (1.6) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रमाण और नय से अधिगम होता है - 'प्रमाणनयैरधिगमः।" प्रमाण से नय का यह भेद है कि प्रमाण में जहाँ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल इन पाँचों ज्ञानों का समावेश होता है वहाँ नय मात्र श्रुतज्ञान से सम्बद्ध है । इसका प्रमुख कारण है कि नय ज्ञान वाक्यों से होता है। वाक्य शब्दात्मक होते हैं, शब्दात्मक होने से इन्हें श्रुतज्ञान से सम्बद्ध माना गया है। नय के द्वारा वाक्यों का अर्थ या अभिप्राय ग्रहण किया जाता है। उसी तरह निक्षेप या न्यास का प्रयोग शब्दों का सही अर्थ ग्रहण करने के लिए किया जाता है। इस प्रकार नय एवं निक्षेप दोनों पारिभाषिक शब्द भाषात्मक प्रयोग से सम्बन्ध रखते हैं।
प्रमाण के द्वारा जहाँ वस्तु को नित्यानित्यात्मक स्वरूप में जाना जाता है वहाँ नय के द्वारा उसे द्रव्य की दृष्टि से नित्य एवं पर्याय की दृष्टि से अनित्य माना जाता है। इस तरह नय एक दृष्टिकोण से वस्तु का बोध कराता है । वस्तु के एक अंश या कतिपय धर्मों को ग्रहण करने वाला नय वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता, विवक्षा के अनुसार वह एक अंश को प्रधान तथा दूसरे अंश को गौण रूप में प्रतिपादित करता है । वस्तु को कौन, किस प्रकार जानता है इसमें ज्ञाता का अभिप्राय ही मुख्य होता है और ज्ञाता के इस ज्ञान को नय कहते हैं । वक्ता का अभिप्राय भी नय है, क्योंकि वह किस प्रकार के वाक्य का प्रयोग करता है, उसके पीछे कोई नय दृष्टि रहती है। नय का सम्पूर्ण लक्षण इस प्रकार हो सकता है- अनेकान्तात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाला , किन्तु अन्य अंशों का निषेध न करने वाला ज्ञाता एवं वक्ता का अभिप्राय विशेष नय है।
नय का स्वरूप
जैन परम्परा में नय का प्रतिपादन प्रमाण के निरूपण से भी प्राचीन है। प्रमाण का समावेश जैनदर्शन में न्याय-वैशेषिकादि दर्शनों के प्रभाव से हुआ है, किन्तु नय का निरूपण जैनदर्शन का मौलिक वैशिष्ट्य है। 'नय' के कतिपय लक्षण इस प्रकार हैं