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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का संक्षिप्त स्वरूप
नन्दीसूत्र के नियुक्तिकार ने अवग्रह आदि का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा है
अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह वियालणं ईहं ।
ववसायं च अवायं धरणं पुणधारणं बॅति ।।" अर्थात् अर्थों को ग्रहण करना अवग्रह है, उसका (अवगृहीत अर्थ का) विचार करना ईहा है, ईहित का निश्चय करना अवाय है तथा उस निर्णय को धारण करना धारणा है । जिनदासगणि महत्तर ने नन्दीसूत्र की चूर्णि में प्राकृत भाषा में इनका स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है- “रूपादि विशेष से निरपेक्ष अनिर्देश्य सामान्य का ग्रहण अवग्रह है। उसका (अवगृहीत अर्थ का) विशेष विचार या अन्वेषण ईहा है। उस (ईहित) विशेषण विशिष्ट अर्थ का निर्णय होना अवाय है । उस विशेष रूप से ज्ञात अर्थ का धारण करना, उसकी अविच्युति होना धारणा कहा जाता है ।" विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण इनके स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं
सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा।
तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स ।।" “सामान्य अर्थ का ग्रहण अवग्रह है, उसकी भेदमार्गणा (या विशेष अन्वेषण) ईहा है, उसका निर्णयात्मक बोध अवाय है, उसकी अविच्युति (कुछ काल तक टिकना) धारणा है।"
पूज्यपाद देवनन्दी (5वीं शती), अकलङ्क आदि दिगम्बर दार्शनिक भी अवग्रह को छोड़कर ईहा आदि का इसी प्रकार विवेचन करते हैं। वे अवग्रह के पहले 'दर्शन' का होना अङ्गीकार करते हैं। उनके मत में विषय तथा विषयी (इन्द्रिय) का सन्निपात (सन्निकर्ष) होने पर दर्शन होता है, उसके पश्चात् अर्थ का ग्रहण अवग्रह कहलाता है। अवगृहीत अर्थ में उससे विशेष जानने की आकांक्षा ईहा है। विशेष को जान लेने पर यथास्वरूप का ज्ञान अवाय कहलाता है तथा अवाय द्वारा जाने गए अर्थ को कालान्तर में भी न भूलना धारणा है।''