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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
अतः वह तो न्यायदर्शन में वर्णित इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से अत्यन्त भिन्न नहीं है । इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को जैनदर्शन में प्रमाण नहीं माना गया । उसे प्रमाण मानने का जैनदर्शन में अनेक बार खण्डन किया गया है । पूज्यपाद, अकलक आदि जो जैनदार्शनिक व्यंजनावग्रह को अव्यक्तग्रहण के रूप में मानते हैं वह भी प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में नहीं आता है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण तो विशदतालक्षण वाला होता है । 'स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष होता है' यह प्रत्यक्षप्रमाण का लक्षण जैन दर्शन में सर्वस्वीकृत है । व्यंजनावग्रह में अस्पष्टता होती है, इसलिए उसका समावेश प्रत्यक्षप्रमाण में किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में " प्राप्त अर्थ का ग्रहण व्यंजनावग्रह है एवं अप्राप्त अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह है" यह जो कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होने का क्रम निश्चित है । व्यंजनावग्रह में जब प्राप्त अर्थ का ग्रहण होता है तब अर्थावग्रह में वह अप्राप्त अर्थ का ग्रहण कैसे हो सकता है ? जो पूर्व में प्राप्त (सन्निकर्ष युक्त ) है वह अनन्तरकाल में अप्राप्त नहीं हो सकता । चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता, इसलिए उनसे प्रारम्भ में ही अर्थावग्रह होता है, किन्तु अन्य इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होता है, यह नियम है । अतः वीरसेनाचार्य द्वारा निरूपित लक्षण व्यंजनावग्रह में प्रमाणता सिद्ध करने में समर्थ नहीं है । व्यंजनावग्रह यदि अविशद अवग्रह के रूप में स्वीकार किया जाता है तो विशदता के अभाव में उसका प्रत्यक्षप्रमाण होना सिद्ध नहीं होता । अर्थावग्रह प्रमाण कैसे ?
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अब अर्थावग्रह के प्रमाण होने की चर्चा की जा रही है । जिनभद्र आदि के द्वारा वर्णित स्वरूप, नामादि की कल्पना से रहित एवं अनिर्देश्य अर्थावग्रह में स्व-पर निश्चयात्मकता का अभाव होने के कारण प्रमाणता सिद्ध नहीं है । स्व-पर की निश्चयात्मकता के लक्षण के बिना वह अर्थावग्रह प्रमाण नहीं होता, किन्तु आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य में अर्थावग्रह के दो भेद किए हैं 1. नैश्चयिक अर्थावग्रह और 2. व्यावहारिक अर्थावग्रह । नैश्चयिक अर्थावग्रह एक समय का, अनिर्देश्य एवं स्वरूप, नामादि की कल्पना से रहित होता है। व्यावहारिक अर्थावग्रह उपचरित अर्थावग्रह होता है । छद्मस्थ व्यवहारी प्रायः इस उपचरित
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