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जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान
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क्योंकि स्व-प्रकाशकता दर्शन का विषय है, ज्ञान का नहीं । निर्णयात्मकता भी अवायज्ञान में ही मानी गई है, अवग्रह और ईहा में नहीं मानी गई ।
अकलङ्क आदि जो प्रमाणमीमांसीय परम्परा के आचार्य हैं, वे अवग्रह ज्ञान में प्रामाण्य स्थापित करने हेतु उसमें निर्णयात्मकता भी स्वीकार करते हैं। तत्त्वार्थवार्तिक में अकलक ने अवग्रह एवं ईहाज्ञान में निर्णयात्मकता इस प्रकार सिद्ध की है- 'स्थाणु, पुरुष आदि अनेक अर्थों के आलम्बन रूप सन्निधान से संशय अनेकार्थात्मक होता है, जबकि अवग्रह एक पुरुष आदि के अन्यतमात्मक ज्ञानस्वरूप होता है। संशय निर्णय विरोधी होता है, किन्तु अवग्रह नहीं, क्योंकि उसमें निर्णय होता दिखाई देता है । " तात्पर्य यह है कि अवग्रह ज्ञान संशय ज्ञान से भिन्न है। संशय अनेक अर्थों का आलम्बी एवं निर्णयविरोधी होता है, किन्तु अवग्रह में ऐसे दोष नहीं हैं। वह तो एकात्मक और निर्णयात्मक होता है इसलिए प्रमाण ही है। अकलक ने ईहा को अवगृहीत अर्थ का आदान करने से निर्णयात्मक माना है, इसलिए ईहा भी प्रमाण है।
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यह उल्लेखनीय है कि आचार्य सिद्धसेन के टीकाकार अभयदेवसूरि साकार ज्ञान की भांति निराकार दर्शन को भी प्रमाण स्वीकार करते हैं । वे ही अकेले जैनाचार्य हैं जिन्होंने सामान्यग्राही दर्शन को भी विशेषग्राही ज्ञान की भांति प्रमाण माना है । उन्होंने कहा है- 'निराकार और साकार उपयोग तो अपने से भिन्न आकार को गौण करके अपने विषय के अवभासक रूप में प्रवृत्त होने से प्रमाण हैं, इतर आकार से रहित होकर नहीं ।" यहाँ अभयदेवसूरि ने अनेकान्तदृष्टि को अपनाकर ज्ञान एवं दर्शन की सापेक्ष प्रमाणता स्वीकार की है, ऐसा प्रतीत होता है ।
अवग्रह के दो भेद हैं- व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । अवग्रह के प्रामाण्य का निर्धारण करने हेतु इन दोनों का पृथक् रूप से विचार किया जाएगा । व्यंजनावग्रह प्रमाण नहीं है
व्यंजनावग्रह का जो स्वरूप जैनाचार्यों ने बतलाया है वह तो किसी भी प्रकार प्रमाणकोटि में, विशेषतः प्रत्यक्षप्रमाण की कोटि में समाविष्ट नहीं हो सकता । जिनभद्र आदि के मत में व्यंजनावग्रह इन्द्रिय एवं अर्थ के सम्बन्ध रूप होता है,