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जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान
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आगमनिरूपित मतिज्ञान का जब प्रमाण के सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष भेदों में विचार किया गया तब मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा भेदों का उनमें समावेश कर लिया गया। इनमें से अवाय और धारणात्मक ज्ञान तो स्व एवं अर्थ के व्यवसायात्मक होने के कारण एवं वैशद्य लक्षण वाले होने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु अवग्रह एवं ईहा ज्ञान का प्रत्यक्ष प्रमाण में समावेश तब संदेहास्पद बना जब अवाय ज्ञान के पहले जैनाचार्यों ने निर्णयात्मकता स्वीकार नहीं की।
इस शोध लेख में अवग्रह के स्वरूप की परीक्षा करके हम कह सकते हैं कि व्यंजनावग्रह निर्णयात्मक नहीं होने के कारण किंवा अनध्यवसायात्मक होने के कारण प्रमाण नहीं होता है । यह विशदता का अभाव होने के कारण प्रत्यक्ष भी नहीं होता । अर्थावग्रह तो प्रमाण है, क्योंकि वह व्यवसायात्मक है, संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित है तथा संवादक है । वह प्रत्यक्ष भी है, क्योंकि वह विशद है और उसमें इदन्तया प्रतिभास होता है।
वैशद्य के स्तर की अपेक्षा से अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा ज्ञानों में भेद है, फिर भी वे सब परोक्ष प्रमाण की अपेक्षा अधिक विशद होते हैं, इसलिए वे सब प्रत्यक्ष प्रमाण ही हैं। इन सबमें इदन्तया प्रतिभास होता ही है । अवग्रह ज्ञान अन्य ज्ञानों से निरपेक्ष होने के कारण अधिक विशद होता है। ईहा ज्ञान अवग्रह ज्ञान के आश्रित है, अतः उसमें विशदता अवग्रह से न्यून सिद्ध होती है, किन्तु ईहा आदि ज्ञान अवग्रह की अपेक्षा विशेष को जानते हैं, इसलिए उनमें विशदता फिर भी रहती ही है।
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अर्थावग्रह सामान्यग्राही होता है, यह जिनभद्र आदि दार्शनिकों का मत है। जैन दर्शन में समस्त प्रमेय वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक मानी गई हैं ।" अवग्रह ज्ञान जब सामान्यग्राही होता है, तब क्या वह 'सामान्य' विशेष निरपेक्ष होता है, यह प्रश्न खड़ा होता है। यहाँ यह समाधान लगता है कि वह सामान्य विशेष निरपेक्ष नहीं है। सामान्य की प्रधानता के कारण वह सामान्य ग्रहण कहलाता है। विशेष की प्रधानता से विशेष-ग्रहण माना जाता है। मनुष्य, पुरुष, ब्राह्मण आदि शब्द कभी सामान्य की