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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
"वह अर्थावग्रह इन्द्रियबल से उत्पन्न होता है, स्पष्ट रूप से प्रकाशक होता है, वस्तु का ज्ञान कराता है, इसलिए वह निर्णयात्मक रूप में सिद्ध है। व्यंजन को विषय करने वाला व्यंजनावग्रह अस्पष्ट होता है।" ___ यहां विद्यानन्द के मत में अर्थावग्रह प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध होता है, क्योंकि वह निश्चयात्मक होता है तथा विशद होता है। विद्यानन्द प्रत्यक्ष प्रमाण में निश्चयात्मकता को अङ्गीकार करके भी शब्द योजना को आवश्यक नहीं मानते हैं। शब्द योजना से रहित होने की अपेक्षा वे प्रत्यक्ष को कथञ्चिद् निर्विकल्पक भी मानते हैं।" तत्त्वबोधविधायिनी के रचयिता अभयदेव सूरि भी इसी प्रकार प्रत्यक्ष में निर्विकल्पकता को (कथञ्चिद्) स्वीकार करते हैं।
धवलाकार वीरसेन स्वामी मानते हैं कि यदि अवग्रह निर्णयात्मक होता है तो उसका अन्तर्भाव अवाय में होना चाहिए और यदि वह अनिर्णय रूप होता है तो वह प्रमाण नहीं हो सकता। इस समस्या का समाधान करने के लिए वीरसेनाचार्य ने
अवग्रह के विशदावग्रह एवं अविशदावग्रह ये दो भेद बतलाकर विशदावग्रह को निर्णयात्मक तथा अविशदावग्रह को अनिर्णयात्मक प्रतिपादित किया है। यहां व्यंजनावग्रह को अविशदावग्रह के रूप में तथा अर्थावग्रह को विशदावग्रह के रूप में विविक्त किया जा सकता है। इस प्रकार विशदावग्रह स्वरूप अर्थावग्रह प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में सिद्ध होता है। ____ इस प्रकार जिनभद्र के मत में उपचरित अर्थावग्रह, अकलङ्क, विद्यानन्द आदि के मत में वर्णित अर्थावग्रह और वीरसेनाचार्य के मत में विशदावग्रह स्वरूप जो अर्थावग्रह है, वह प्रत्यक्ष-प्रमाण सिद्ध होता है। उपसंहार
जैनदर्शन में स्व एवं अर्थ के व्यवसायात्मक अथवा स्व एवं पर के निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। वह प्रमाण संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित होता है तथा संवादक होता है। जब यह प्रमाण विशदता के लक्षण से युक्त होने के कारण प्रमाणान्तर से निरपेक्ष एवं इदन्तया प्रतिभास से युक्त होता है तब वह प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है।