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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
(iii) व्यवसायात्मकंज्ञानमात्मार्थग्राहकंमतम् ।
ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यंप्रामाण्यमश्नुते ।।- अकलङ्क, लघीयस्त्रय, 60
व्यवसायात्मक ज्ञान स्व एवं अर्थ का ग्राहक माना गया है, इसलिए व्यवसायात्मक अथवा निर्णयात्मक ज्ञान ही मुख्य प्रमाण है। (iv) तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानंमानमितीयता।
विद्यानन्द,तत्त्वार्थश्लोक-वार्तिक 1.10.78 स्व एवं अर्थ का व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है। स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकंज्ञानं प्रमाणम् ।- माणिक्यनन्दी, परीक्षामुख 1.1
स्व एवं अपूर्व अर्थ का व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है। (vi) प्रमाणंस्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानमिति। अभयदेवसूरि,तत्त्वबोधविधायनी,पृ. 518
स्व एवं अर्थ की निर्णीतिस्वभाव वाला ज्ञान प्रमाण है। (vii) स्वपरव्यवसायिज्ञानंप्रमाणम् ।- वादिदेवसूरि, प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1.2
स्व एवं पर का व्यवसायक ज्ञान प्रमाण है। (vili) सम्यगर्थनिर्णयःप्रमाणम् ।- हेमचन्द्र, प्रमाणमीमांसा 1.1.3
अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है। प्रमाण के इन लक्षणों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन में वही ज्ञान प्रमाण होता है जो स्व एवं पर का निश्चायक होता है । जो ज्ञान स्व एवं पर (अर्थ) का निश्चायक नहीं होता, वह प्रमाण नहीं माना जाता है। संशय, विपर्यय
और अनध्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण कोटि में नहीं आता है, क्योंकि वह सम्यक् नहीं होता है। स्व का एवं अर्थ (पदार्थ, वस्तु) का सम्यक् निर्णय ही प्रमाण होता है, यह सभी जैन दार्शनिकों के द्वारा स्वीकृत है । इस लक्षण में हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि का प्रयोजन ही प्रमुख है। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय हान, उपादान एवं उपेक्षा बुद्धि में असमर्थ होने के कारण प्रमाणलक्षण से बहिर्भूत हैं। निर्विकल्पक दर्शन भी इस कारण से प्रमाणकोटि में समाविष्ट नहीं किया गया है।
आगम-परम्परा के जिनभद्र क्षमाश्रमण आदि श्वेताम्बर दार्शनिकों के मत में अवाय ज्ञान ही निश्चयात्मक होता है, उससे पूर्व होने वाले अवग्रह एवं हाज्ञान निर्णयात्मक नहीं होते हैं । दिगम्बर-परम्परा में अवग्रह ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है,