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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
1. पूज्यपाद देवनन्दी और अकलङ्क के मत में अव्यक्त ग्रहण व्यंजनावग्रह होता है तथा व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह होता है। जिस प्रकार नया सकोरा जल की दो तीन सूक्ष्म बूंदों से छींटे जाने पर गीला नहीं होता है, किन्तु वही सकोरा बार-बार छींटे जाने पर धीरे-धीरे गीला हो जाता है। इसी प्रकार शब्दादि विषयों के अव्यक्त ग्रहण को व्यंजनावग्रह एवं व्यक्त ग्रहण को अर्थावग्रह कहते हैं । आचार्य विद्यानन्द भी इसी मत का समर्थन करते हुए व्यंजनावग्रह को अस्पष्ट तथा अर्थावग्रह को स्पष्ट ग्रहण के रूप में प्रतिपादित करते हैं।' 2. द्वितीय मत में वीरसेनाचार्य (9-10 वीं शती) षट्खण्डागम की धवला टीका में अप्राप्त अर्थ ग्रहण को अर्थावग्रह और प्राप्त अर्थ ग्रहण को व्यंजनावग्रह बतलाते हैं । वे अकलङ्क के द्वारा दी गई परिभाषा का खण्डन करते हुए कहते हैं- “स्पष्ट ग्रहण अर्थावग्रह नहीं है, क्योंकि फिर अस्पष्ट ग्रहण को व्यंजनावग्रह मानना पड़ेगा । यदि ऐसा हो भी जाये तो चक्षु में भी अस्पष्ट ग्रहण होता दिखाई देता है, इसलिए उसमें भी व्यंजनावग्रह मानने का प्रसंग आता है और आगम में चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह स्वीकार नहीं किया गया है। ____ धवलाटीका की नवमी पुस्तक में वीरसेनाचार्य ने शङ्का उठाई है कि अवग्रह निर्णय रूप होता है या अनिर्णय रूप ? यदि वह निर्णय रूप होता है तो उसका अवाय में अन्तर्भाव होना चाहिए और यदि वह अनिर्णय रूप होता है तो प्रमाण नहीं हो सकता । इस शङ्का के समाधान में वीरसेन स्वामी ने अवग्रह के दो नये भेद किए हैं- 1. विशद अवग्रह और 2. अविशद अवग्रह । उनमें से विशद अवग्रह निर्णयात्मक होता हुआ ईहा, अवाय एवं धारणा ज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनता है। वह अवग्रह निर्णय रूप होता हुआ भी ईहा, अवाय आदि निर्णयात्मक ज्ञानों से पृथक् होता है। (किसी पुरुष की) भाषा, आयुष्य, रूप आदि विशेषों का ग्रहण किए बिना पुरुष मात्र (सामान्य) का ग्रहण करना अविशद अवग्रह होता है। 3. तीसरा मत जिनभद्र क्षमाश्रमण (छठी शताब्दी) ने युक्तिपुरस्सर उपस्थापित किया है। आगमपरम्परा के व्याख्याकार आचार्य जिनदासगणिमहत्तर, सिद्धसेनगणि, यशोविजय (17वीं शती) आदि इसके समर्थक हैं । जिनभद्र के मत में