________________
जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान
215
व्यंजनावग्रह से पूर्व विषय एवं विषयी के सन्निपात से उत्पन्न दर्शन नहीं होता है। व्यंजनावग्रह के स्वरूप का निर्देश करते हुए वे विशेषावश्यकभाष्य में कहते हैं
वंजिज्जइजेणत्थोघडोव्वदीवेणवंजणंतंच।
उवगरणिदियसद्दाइपरिणयद्दव्वसंबंधो॥" अर्थात् जिस प्रकार दीपक के द्वारा घट प्रकट किया जाता है, उसी प्रकार जिससे अर्थ प्रकट किया जाये उसे व्यंजन कहते हैं । वह व्यंजन है- उपकरणेन्द्रिय एवं शब्दादि पुद्गल पर्याय का सम्बन्ध । जब श्रोत्र आदि उपकरण इन्द्रियों का अर्थ (पदार्थ) के साथ सम्बन्ध होता है तब व्यंजनावग्रह होता है। अतः इन्द्रिय-लक्षण व्यंजन से शब्दादि परिणत द्रव्य के सम्बन्ध स्वरूप व्यंजन का अवग्रह व्यंजनावग्रह कहलाता है । इस प्रकार व्यंजन तीन प्रकार का होता है- 1. इन्द्रिय 2. शब्दादिपरिणत द्रव्य और 3. उन दोनों का सम्बन्ध । यद्यपि व्यंजनावग्रह में ज्ञान का अनुभव नहीं होता है फिर भी ज्ञान का कारण होने से यह ज्ञान कहलाता है। अग्नि के एक कण में अग्नि की भांति व्यंजनावग्रह में अतीव अल्प ज्ञान स्वीकार किया जाता है ।18
व्यंजनावग्रह के चरम समय में अर्थावग्रह होता है। जिनभद्र गणि ने अर्थावग्रह का स्वरूप इस प्रकार निरूपित किया है- सामन्नमणिदेसं सरूवनामाइकप्पणारहियं।” (यह अर्थावग्रह) सामान्य, अनिर्देश्य एवं स्वरूप, नाम आदि की कल्पना से रहित होता है । अर्थात् अर्थावग्रह में वस्तु का सामान्य ग्रहण होता है । वह सामान्य ग्रहण अनिर्देश्य होता है (उसका कथन नहीं किया जा सकता) तथा स्वरूप एवं नामादि की कल्पना से रहित होता है । सामान्य अर्थ निर्देश्य भी होता है, किन्तु उसका व्यवच्छेद करने के लिए अनिर्देश्य पद ग्रहण किया गया है, ऐसा वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्र ने स्पष्ट किया है। स्वरूप, नामादि की कल्पना से रहित में आदि शब्द से जाति, क्रिया, गुण एवं द्रव्य का ग्रहण होता है। अर्थावग्रह इन सबसे रहित होता है। अर्थावग्रह का काल जैनागमों में एक समय ही माना गया है। समय काल का सबसे छोटा अविभाज्य अंश होता है। एक समय में नामादि की कल्पना होना संभव भी नहीं है। स्वरूप का निर्देश भी नहीं किया जा