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जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान
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के लिए वे प्रश्न करते हैं कि आलोचना ज्ञान व्यंजनावग्रह से पूर्व होता है, पश्चात् होता है या वह व्यंजनावग्रह ही होता है ? इनमें से प्रथम पक्ष उचित नहीं है, क्योंकि तब अर्थ एवं व्यंजन (इन्द्रिय) के सम्बन्ध का ही अभाव रहता है। बाद में भी आलोचना ज्ञान होना संभव नही है, क्योंकि व्यंजनावग्रह के चरम समय में अर्थावग्रह होता है। यदि व्यंजनावग्रह ही आलोचनाज्ञान है तो यह नामान्तरकरण ही हुआ। दूसरी बात यह है कि व्यंजनावग्रह अर्थशून्य (अर्थज्ञान से रहित) होता है, इसलिए अर्थ का आलोचनज्ञान तब भी होना उचित नहीं है।
बौद्ध दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष किस प्रकार का है, इसका जिनभद्र ने विचार नहीं किया है, किन्तु जिनभद्र के मत में जो अर्थावग्रह है वह ही बौद्धों का निर्विकल्पक इन्द्रिय प्रत्यक्ष हो, ऐसा प्रतीत होता है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के जो स्वसंवेदन और योगी प्रत्यक्ष नामक दो भेद हैं,* वे इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं करते, अतः वे दोनों इन्द्रिय प्रत्यक्ष से भिन्न हैं । मानसप्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष के आश्रित होता है। बौद्धों के द्वारा प्रतिपादित इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से जैनों द्वारा प्रतिपादित इन्द्रिय-प्रत्यक्षस्वरूप अर्थावग्रह कथञ्चिद् भिन्न भी है। बौद्ध मत में इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण माना गया है और जैन मत में अर्थावग्रह का विषय सामान्य ग्रहण को स्वीकार किया गया है। दर्शन और अवग्रह में भेदाभेदता
जैनदर्शन में 'ज्ञान के पूर्व दर्शन होता है' यह प्रसिद्ध सिद्धान्त है। दर्शन के अनन्तर ही ज्ञान होता है, यह सुनिश्चित क्रम है। अवग्रह मतिज्ञान का भेद होने के कारण ज्ञानात्मक होता है, अतः उससे पूर्व दर्शन होना चाहिए, किन्तु दर्शन और अवग्रह के स्वरूप का जब दार्शनिकों के द्वारा विवेचन किया जाता है तब इन दोनों की पृथक्ता बतलाना कठिन हो जाता है। संक्षेप में यहाँ इसकी चर्चा की जा रही है।
आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क ग्रन्थ में सामान्य-ग्रहण दर्शन है तथा विशेष का ग्रहण ज्ञान है, ऐसी परिभाषा करते हैं। द्रव्यार्थिकनय से दर्शन सामान्यग्राही तथा पर्यायार्थिकनय से ज्ञान विशेषग्राही होता है। उनके मत में दर्शन और ज्ञान में * बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष-प्रमाण के चार भेद हैं- 1. इन्द्रिय प्रत्यक्ष, 2. मानस प्रत्यक्ष, 3. स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और 4. योगिप्रत्यक्ष