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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
ज्ञान और प्रमाण में कथंचिदभिन्नता ___ प्रमाण कथञ्चिद् ज्ञान से भिन्न है। संशयज्ञान और विपर्ययज्ञान ज्ञान होकर भी प्रमाण नहीं हैं, यह निर्विवाद है, किन्तु आगम में जो सम्यग्ज्ञान मोक्षप्राप्ति के लिए आवश्यक माना जाता है उसका स्वरूप प्रमाणशास्त्र में निरूपित सम्यग्ज्ञान से भिन्न है । विद्यानन्द (775-840 ई.) प्रमाणपरीक्षा में 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणमिति' प्रमाण-लक्षण की रचना करते हुए संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान बतलाते हैं। हेमचन्द्र (1088-1173 ई.) भी प्रमाणमीमांसा में इसी प्रकार का निरूपण करते हैं।' आगम में जो सम्यग्ज्ञान निरूपित है वह प्रमाणलक्षण से भिन्न है। आगम के अनसार मिथ्यात्वी जब सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तभी उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यक्त्व की यह प्राप्ति जीव के अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक के क्षय, उपशम और क्षयोपशम से होती है। अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क में प्रगाढ क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों का तथा दर्शनमोहत्रिक में सम्यक्त्वमोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह प्रकृतियों का समावेश होता है। प्रमाण के लिए मोह कर्म (की इन प्रकृतियों) के चतुष्क और त्रिक के क्षय आदि की अपेक्षा नहीं रहती है। वहाँ तो मिथ्यात्वी का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान भी प्रमाण ही होता है । इस प्रकार प्रमाणशास्त्रीय सम्यग्ज्ञान आगमनिरूपित सम्यग्ज्ञान से भिन्न है।
प्रमाण का अन्य वैशिष्ट्य है उसकी स्वपर-व्यवसायात्मकता। स्व का और अर्थ (पदार्थ) का निश्चयात्मक ज्ञान ही जैनदर्शन में प्रमाण माना गया है। जो ज्ञान निश्चयात्मक नहीं होता उसका प्रमाण जैनदार्शनिकों को अभीष्ट नहीं है। जैनदर्शन में स्वपर- प्रकाशकता प्रसिद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार ग्रन्थ में ज्ञान की स्वपर-प्रकाशकता की प्रबल रूप में स्थापना की गई है। आचार्य सिद्धसेन (5वींशती) और समन्तभद्र (षष्ठ शती) ने प्रमाण को स्व एवं पर का अवभासक निरूपित किया है। अकलक (720-780 ई.), विद्यानन्द, अभयदेवसूरि (10वीं शती), प्रभाचन्द्र(980-1065 ई.), देवसूरि (1086-1196 ई.), हेमचन्द्र आदि समस्त दार्शनिक ज्ञानात्मक होने के कारण प्रमाण में स्वपर-प्रकाशकता स्वीकार करते हैं।