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जैन न्याय में प्रमाण- विवेचन
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ईहा, अवाय एवं धारणा तक पहुँचती है, तो छात्र को पढ़ा हुआ अच्छी तरह स्थिर हो जाता है। जैनदर्शन की इस ज्ञान - विधि का शिक्षा मनोविज्ञान में विवेचन अपेक्षित है।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष
पारमार्थिक प्रत्यक्ष ही जैनदर्शन में मुख्य प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह सीधे आत्मा के द्वारा होता है ।" यह मात्र आत्मसापेक्ष एवं निश्चयात्मक प्रत्यक्ष - ज्ञान है। इसमें किसी इन्द्रिय, मन आदि की सहायता नहीं रहती । यह पूर्णतः एवं आंशिक रूप से हो सकता है। जब पूर्णतः सकल पदार्थों का प्रत्यक्ष होता है, तो उसे सर्व - प्रत्यक्ष या सकल-प्रत्यक्ष तथा आंशिक रूप से पदार्थों एवं उनकी पर्यायों के प्रत्यक्ष को देश - प्रत्यक्ष या विकल - प्रत्यक्ष के नाम से जाना जाता है । सर्व प्रत्यक्ष का एक ही भेद है - केवलज्ञान और विकल प्रत्यक्ष के दो भेद हैं - अवधिज्ञान एवं मन:पर्ययज्ञान ।
1. केवलज्ञान - जिस ज्ञान में विश्व के समस्त चराचर पदार्थों एवं उनकी त्रैकालिक समस्त पर्यायों का हस्तामलकवत् स्पष्ट एवं निश्चयात्मक बोध होता है, वह केवलज्ञान है ।" जैनदर्शन में केवलज्ञान ही सर्वाधिक प्रमुख प्रत्यक्ष है । यह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह एवं अन्तराय कर्मों का क्षय होने पर प्रकट होता है । समस्त पदार्थों एवं उनकी पर्यायों को जानने के कारण केवलज्ञान - प्राप्त जीव को सर्वज्ञ कहा जाता है | आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में कहा है कि केवली भगवान् सब पदार्थों को व्यवहार - नय से जानते - देखते हैं तथा निश्चयनय से केवल आत्मा को जानते - देखते हैं। 19
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2. मन:पर्यय ज्ञान * - मन:पर्ययज्ञान - रूप प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा परकीय मनोगत पर्याय को जाना जाता है । मनःपर्यय ज्ञान तब प्रकट होता है, जब संयम - विशुद्धि से मनः पर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है ।" यह ऋजुमति एवं विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है। इनमें ऋजुमति से विपुलमति मन:पर्ययज्ञान अधिक विशुद्ध एवं अप्रतिपाती होता है। जो ज्ञान केवलज्ञान होने तक बना रहता है, उसे अप्रतिपाती कहते हैं ।
3. अवधिज्ञान- यह अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होता है तथा इसके द्वारा रूपी - पदार्थों एवं उनकी पर्यायों का ज्ञान होता है। यह भी इन्द्रिय एवं