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जैन न्याय में प्रमाण-विवेचन
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वस्तु की अन्य पर्यायों से भिन्नता बतलाते हैं, वे विशेष कहे गये हैं। प्रत्येक वस्तु में सामान्य एवं विशेष धर्म विद्यमान रहते हैं । वैशेषिक दर्शन में सामान्य एवं विशेष दो भिन्न पदार्थ हैं, जबकि जैनदर्शन में प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होता है । जैन दर्शन के अनुसार कोई सामान्य विशेष से रहित नहीं होता एवं कोई विशेष सामान्य से रहित नहीं होता। प्रमाण-फल
जैन दार्शनिक प्रमाण के फल को दो प्रकार का निरूपित करते हैं-1. साक्षात् फल एवं 2. परम्परा फल । प्रत्यक्ष, स्मृति आदि समस्त प्रमाणों का साक्षात् फल अज्ञान निवृत्ति है । परम्परा-फल दो प्रकार का है। केवलज्ञान का परम्परा-फल उपेक्षा बुद्धि तथा अन्य समस्त प्रमाणों का परम्परा-फल हान (त्यागना), उपादान (ग्रहण करना) एवं उपेक्षाबुद्धि है। ___ किसी प्रमेय का ज्ञान होने का अर्थ है- उस प्रमेय के सम्बन्ध में अज्ञान की निवृत्ति । यही प्रमाण का साक्षात् फल है। प्रमाण एवं उसका फल दोनों ज्ञानात्मक होते हैं । दोनों के ज्ञानात्मक होने के कारण वे परस्पर कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न माने गये हैं । जैन दार्शनिक कहते हैं कि यद्यपि प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति स्व-पर-व्यवसायी प्रमाण से अभिन्न प्रतीत होता है, तथापि प्रमाण साधन एवं अज्ञाननिवृत्ति साध्य है। इन दोनों में साध्य-साधन की प्रतीति होने से ये दोनों कथंचित भिन्न हैं। हान, उपादान एवं उपेक्षाबुद्धि रूप परम्परा-फल भी प्रमाण से कथंचिद् भिन्न एवं कथंचिद् अभिन्न है । वह प्रमाण से कथंचित् भिन्न प्रतीत होता हुआ भी एक ही प्रमाता द्वारा दोनों का अनुभव होने से वे दोनों कथंचित् अभिन्न भी हैं । यदि प्रमाण एवं फल कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न न हों, तो प्रमाण एवं फल की व्यवस्था नहीं बन सकती। प्रमाण का प्रामाण्य
प्रमाण के द्वारा प्रमेय पदार्थ का दोषरहित ज्ञान होना उसका प्रामाण्य है। अब प्रश्न यह होता है कि प्रमाण की प्रमाणता का ज्ञान कैसे हो कि यह प्रमाण वस्तुतः प्रमाण है। जैन दार्शनिकों ने इसके लिए प्रतिपादित किया है कि प्रमाण की प्रमाणता (प्रामाण्य) का ज्ञान अभ्यास-दशा में स्वतः होता है तथा अनभ्यास-दशा में परतः