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जैन न्याय में प्रमाण - विवेचन
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उपस्थिति रूप हेतु वस्तु में अनेकान्तात्मकता साध्य को सिद्ध करने के लिए स्वभाव है । कार्य हेतु में हेतु कार्य रूप होता है एवं साध्य कारण रूप, यथा- पर्वत में वह्निन है, क्योंकि धूम उपलब्ध है । यहाँ धूम वह्नि का कार्य है । कार्य से कारण का अनुमान लगभग प्रत्येक भारतीय दर्शन में स्वीकृत है, कारण हेतु में कारण से कार्य का अनुमान किया जाता है, जैसे- बरसने वाले बादलों को देखकर वर्षा का अनुमान, दूध में चीनी मिलने से मिठास का अनुमान आदि।
पूर्वचर, उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं का स्थापन जैन दार्शनिकों की नई सूझ है । पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं में जैन दार्शनिकों ने साध्य के साथ क्रमभावी अविनाभाव स्वीकार किया है । सहचर हेतु में वे सहभावी अविनाभाव का प्रतिपादन करते हैं। जैनदार्शनिकों का मन्तव्य है कि दो वस्तुओं या घटनाओं का जब कोई निश्चित क्रम हो, तो उनमें पूर्वभावी वस्तु या घटना के द्वारा पश्चाद्भावी वस्तु या घटना का अनुमान पूर्वचर हेतु से तथा पश्चाद्भावी वस्तु या घटना के द्वारा पूर्वभावी का अनुमान उत्तरचर हेतु से सम्पन्न होता है । यथा- पूर्वभाव कृत्तिका नक्षत्र के उदय से जब पश्चाद्भावी शकट नक्षत्र के उदय का अनुमान किया जाता है, तो कृत्तिका नक्षत्र पूर्वचर हेतु है, क्योंकि वह शकट (रोहिणी) नक्षत्र के ठीक पहले उदित होता है । जब शकट (रोहिणी) नक्षत्र को देखकर कृत्तिका नक्षत्र के एक मुहूर्त पूर्व उदय हो चुकने का अनुमान किया जाय, तो शकट उत्तरचर हेतु होगा, क्योंकि वह कृत्तिका का पश्चाद्भावी है । सहचर हेतु में साथ-साथ रहने वाले दो तत्त्वों में से एक के द्वारा दूसरे का अनुमान किया जाता है, यथा- आम्र फल को खाते समय रस का अनुभव कर उसमें रूप का अनुमान । रस और रूप साथ - साथ रहते हैं । जहाँ रस है, वहाँ रूप अवश्य होगा। अतः रस, रूप के अनुमान में
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सहचर हेतु है।
5. आगम-प्रमाण
आगम-प्रमाण को अन्य दर्शनों में शब्द - प्रमाण के नाम से भी जाना जाता है, किन्तु जैन दर्शन में ‘आगम' शब्द का प्रयोग प्रसिद्ध है। आप्त पुरुष के वचनों अथवा उनसे होने वाले प्रमेय अर्थ के ज्ञान को जैन दार्शनिक आगम-प्रमाण कहते हैं। आप्त के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए वादिदेवसूरि कहते हैं कि जो पुरुष