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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
मन की सहायता के बिना सीधा आत्मा से होता है, किन्तु मात्र रूपी पदार्थों का ज्ञान कराने के कारण यह सीमित अर्थात् अवधिज्ञान है। यह नारकी एवं देवों में जन्म से प्राप्त होता है, अतः भवप्रत्यय कहलाता है तथा मनुष्य एंव तिर्यंच में पुरुषार्थ से प्रकट होता है, अतः गुण-प्रत्यय कहा जाता है। इस प्रकार अवधिज्ञान भवप्रत्यय एवं गुणप्रत्यय के रूप में दो प्रकार का है।"
प्रत्यक्ष प्रमाण के उपर्युक्त समस्त भेद आगम में प्रतिपादित ज्ञान के पाँच भेदों से सामंजस्य रखते हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के जो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं अनिन्द्रिय-प्रत्यक्ष ये दो भेद हैं, वे मतिज्ञान के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं, क्योंकि मन एवं इन्द्रियों के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान ही है। अवधि, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान रूप प्रत्यक्ष तो आगम से ज्यों के त्यों गृहीत हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण के इन सभी भेदों में प्रमाण का सामान्य लक्षण घटित होता है। अतः ये भी स्व-पर व्यवसायी होते हैं। परोक्ष-प्रमाण
यह प्रमाण अविशद या अस्पष्ट होता है। प्रत्यक्ष की भाँति इसमें विशदता नहीं रहती, किन्तु यह भी स्व एवं पर पदार्थों का निश्चयात्मक ज्ञान कराता है, इसलिए प्रमाण की कोटि में आता है। परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। इनमें आगम-प्रमाण श्रुतज्ञान रूप है तथा शेष चारों प्रमाण मतिज्ञान के ही अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' में उमास्वामी/उमास्वाति ने मतिज्ञान के पर्याय शब्दों में स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध की गणना की है । भट्ट अकलंक ने आठवीं शती में इनका आश्रय लेकर क्रमशः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान प्रमाण को प्रतिष्ठित किया है। इनमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क की प्रमाण रूप में प्रतिष्ठा का श्रेय अकलंक को जाता है, जिसे उत्तरवर्ती श्वेताम्बर एव दिगम्बर सभी जैन दार्शनिकों ने अपनाया है। यह उल्लेखनीय है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क की प्रतिष्ठा करना जैन दार्शनिकों का प्रमाण के क्षेत्र में भारतीय न्याय को महत्त्वपूर्ण अवदान है।
* इसके लिए मनःपर्यायज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान शब्द भी प्रचलित हैं।