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जैन न्याय में प्रमाण-विवेचन
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1.स्मृति-प्रमाण
धारणा या संस्कार से उद्भूत एवं तत् (वह) आकार वाला ज्ञान स्मृति-प्रमाण है। यह प्रत्यक्ष द्वारा अनुभूत पूर्व ज्ञान को विषय बनाता है । तदनुसार 'वह पुस्तक है','वह मोहन है' आदि के रूप में पूर्व ज्ञात विषय का 'वह' आकार में ग्रहण करने वाला ज्ञान स्मृति प्रमाण कहा जाता है। सभी स्मृतियाँ प्रमाण नहीं होती हैं, किन्तु जो स्मृति पूर्व अनुभूत विषय का यथार्थ निश्चयात्मक ज्ञान कराती है, वही स्मृति प्रमाण कही जाती है । स्मृति का प्रामाण्य हमारे लेन-देन के व्यवहार एवं भाषा के प्रयोग से भी पुष्ट होता है। बिना स्मृति के कोई व्यक्ति किसी कार्य के लिए निश्चित समय पर एवं निश्चित प्रयोजन से प्रवृत्त नहीं हो सकता है। वस्तुतः स्मृति हमें हेय, उपादेय एवं उपेक्षणीय का भी बोध कराती रहती है, इसलिए स्मृति को प्रमाण मानना सर्वथा व्यवहार्य है । स्मृति को प्रमाण मानकर जैन दार्शनिकों ने जैन प्रमाण-मीमांसा को सांव्यवहारिकता या लोकोपयोगिता की ओर बढ़ाया है। 2. प्रत्यभिज्ञान-प्रमाण ___ यह स्मृति एवं प्रत्यक्ष का संकलनात्मक ज्ञान होता है। व्यवहार में इसे हम 'पहचानना' शब्द से जानते हैं । पूर्व अनुभव की स्मृति एवं वर्तमान में प्रत्यक्ष, ये दोनों मिलकर ही प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप बनते हैं। यह प्रत्यभिज्ञान अनेक प्रकार का हो सकता है । मुख्य रूप से इसके चार प्रकार प्रतिपादित हैं- एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, वैलक्षण्य (वैसादृश्य) प्रत्यभिज्ञान और प्रातियौगिक प्रत्यभिज्ञान । एकत्व प्रत्यभिज्ञान में पूर्व ज्ञात अर्थ का प्रत्यक्ष होने पर 'यह वही है' इस प्रकार एकता का ज्ञान होता है, जैसे- पूर्व दृष्ट देवदत्त का पुनः प्रत्यक्ष होने पर 'यह वही देवदत्त है' इस प्रकार का निश्चयात्मक ज्ञान एकत्व-प्रत्यभिज्ञान है। सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में पूर्वदृष्ट के सदृश अन्य अर्थ का प्रत्यक्ष होने पर 'यह उसके सदृश है' इस प्रकार सादृश्य ज्ञान होता है । यथा- पूर्वदृष्ट गाय के पश्चात् तत्सदृश गवय का प्रत्यक्ष होने पर 'यह (गवय) गाय के सदृश है' रूप में सादृश्य-प्रत्यभिज्ञान होता है । वैलक्षण्य या वैसादृश्य-प्रत्यभिज्ञान पूर्व-दृष्ट से वर्तमान में प्रत्यक्ष हो रहे पदार्थ की असमानता (विसदृशता) बतलाता है; उदाहरणार्थ पहले गाय का प्रत्यक्ष