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• जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
होने के पश्चात् इन तीन भेदों को महत्त्व नहीं मिला। स्वयं प्रमाता के लिए हेतु से साध्य का ज्ञान स्वार्थानुमान है तथा जब प्रमाता स्वार्थानुमान होने के पश्चात् किसी अन्य को हेतु आदि का कथन करके साध्य का ज्ञान कराता है, तो उसे परार्थानुमान कहा जाता है।
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स्वार्थानुमान में हेतु एवं साध्य दो महत्त्वपूर्ण घटक हैं। तीसरा घटक इनका पारस्परिक अविनाभाव सम्बन्ध अथवा व्याप्ति सम्बन्ध है, जिसके कारण हेतु द्वारा साध्य का ज्ञान होता है। अब प्रश्न होता है कि हेतु का जैन दर्शन में क्या स्वरूप है ? जैन दार्शनिकों ने अपनी प्रमाण - मीमांसा के द्वारा भारतीय दर्शन को जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया है, उसमें हेतु- -लक्षण का विशिष्ट स्थान है। वे हेतु का एक ही लक्षण प्रतिपादित करते हैं और वह है उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव ।” अविनाभाव का अर्थ है- उसके बिना इसका न रहना। साध्य के बिना हेतु नहीं रहता, यही उसका लक्षण है । हेतु के बिना साध्य तो रह सकता है। धूम के बिना अग्नि रह सकती है, किन्तु अग्नि के बिना धूम नहीं रह सकता अर्थात् अविच्छिन्न धूम तभी होता है, जब अग्नि हो । हेतु तभी होता है, जब साध्य हो । साध्य के न होने या अभाव होने पर हेतु का भी अभाव रहता है । हेतु का लक्षण यही है कि उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव सम्बन्ध रहता है । अविनाभाव के अर्थ में अन्यथानुपपन्न एवं अन्यथानुपपत्ति शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । इसलिए कुछ दार्शनिक हेतु का लक्षण प्रतिपादित करते हुए हेतु की साध्य के साथ निश्चित अन्यथानुपपत्ति बतलाते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि पात्रस्वामी, भट्ट अकलंक, विद्यानन्दि आदि सभी जैन दार्शनिकों ने बौद्धों के द्वारा प्रतिपादित हेतु के त्रिलक्षण (पक्षधर्मत्व, सपक्षत्त्व एवं विपक्षासत्त्व) का तथा न्यायदार्शनिकों द्वारा मान्य हेतु के पंचलक्षण ( उपर्युक्त तीन + असत्प्रपिपक्षत्व और अबाधितविषयत्व) का निरसन कर साध्याविनाभाविता स्वरूप एक हेतु - लक्षण प्रतिपादित किया है । पात्रस्वामी के त्रिलक्षणकदर्थन ग्रन्थ का निम्नांकित श्लोक अकलङ्क, विद्यानन्द आदि अनेक जैन दार्शनिक उद्धृत करते हैं
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अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।