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सम्यग्दर्शन
कुणमाणो वि निवित्तिं, परिच्चयंतो वि सयणधणभोए।
दितो वि दुहस्स उरं, मिच्छादिट्ठी न सिज्झई। अर्थात् मिथ्यादृष्टि प्राणी संसार से निवृत्ति लेता हुआ भी, स्वजन, धन एवं भोगों का त्याग करता हुआ भी तथा दुःखियों की सहायता करता हुआ भी सिद्ध नहीं होता। मुक्ति या सिद्धि प्राप्त करने के लिए मिथ्यादर्शन का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना अनिवार्य है, तभी सम्यग्दर्शन का प्रकटीकरण होगा एवं मुक्ति की ओर चरण बढेंगे। __ मिथ्यादर्शन को शल्य की उपमा दी गई है। मिथ्यादर्शन एक ऐसा कण्टक (शल्य) है, जो मनुष्य को पीड़ित एवं दुःखी करने में निमित्त तो बनता है, किन्तु इस शल्य का मनुष्य को प्रायः भान नहीं होता। मिथ्यात्व का भान होने पर ही सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। मिथ्यात्व को तोड़ना तब संभव है जब आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति अन्तः कोटाकोटि सागरोपम रह जाती है। मिथ्यात्व की स्थिति भी 70 कोटाकोटि सागरोपम से घटकर एक कोटाकोटि सागरोपम से भी न्यून रह जाती है। अर्थात् मिथ्यात्व की सघनता जब अत्यन्त कमजोर पड़ जाती है तो सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। ___ आज हम प्रायः मिथ्यात्वदशा में ही जी रहे हैं। विषय-भोग हमें प्यारे लगते हैं। इन्द्रिय-जय एवं मनोजय में हमारी रुचि नहीं है, हमारी रुचि है इन्हें उत्तरोत्तर भोगों में लगाने में। पर से सुख मिलेगा, यह मान्यता ही मिथ्यात्व है। सूक्ष्मता से कहें तो भोगों में जीवनबुद्धि होना मिथ्यात्व है। भोगों के बिना जीवन नहीं चलेगा एवं भोगों के लिए ही जीवन मिला है, इस प्रकार की मान्यता मिथ्यात्व है। इस मान्यता के कारण ही मनुष्य अधिकाधिक भोग-साधन जुटाने में लगा हुआ है।
मिथ्यात्व के शास्त्रों में पांच, दस एवं पच्चीस प्रकारों का निरूपण है, किन्तु आधुनिक भाषा में जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का कथन किया जाये तो अग्राङ्कित बिन्दु भी मिथ्यात्व को ही व्यक्त करते हैं- 1. भोग में रुचि होना एवं योग-समाधि में अरुचि होना 2.भोगों में ही जीवनबुद्धि स्वीकार करना 3. भय एवं प्रलोभन से धर्माचरण करना 4. भोगों की प्राप्ति हेतु धर्म-क्रियाएँ करना 5. आर्थिक उन्नति को ही सब समझकर शरीर, मन एवं आत्मिक-स्वास्थ्य की उपेक्षा करना