________________
186
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
अन्य दार्शनिक मान्यताओं का 12 अध्यायों में खण्डन करते समय बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के प्रमाण-चिन्तन का भी खण्डन किया है, किन्तु उन्होंने जैनदर्शन की
ओर से प्रमाण-व्यवस्था प्रस्तुत नहीं की। सिद्धसेन, समन्तभद्र (पाँचवी शती), हरिभद्र सूरि (700-770 ई.) आदि की अधिकतर रचनाएँ मुख्यतः अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठापक रहीं।
भट्ट अकलंक के अनन्तर विद्यानन्दि (775-840 ई.) की आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा एवं सत्यशासन-परीक्षा को महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। उनकी अष्टसहनी एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीकाओं में भी प्रमाण-विषयक चर्चा सम्प्राप्त होती है । सिद्धर्षिगणि (9वीं शती) की न्यायावतारविवृति, अनन्तवीर्य (950-990 ई.) की सिद्धिविनिश्चय टीका, माणिक्यनन्दी (993-1053 ई.) के परीक्षामुख, वादिराज (1025 ई.) के न्यायविनिश्चयविवरण एवं प्रमाणनिर्णय, अभयदेवसूरि (10 वीं शती) कृत तत्त्वबोधविधायिनी टीका (सन्मतितर्कटीका), प्रभाचन्द्र (980-1065 ई.) विरचित न्यायकुमुदचन्द्र एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड, वादिदेवसूरि (1086-1169 ई.) विरचित प्रमाणनयतत्त्वालोक एवं उस पर टीकाग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकर, हेमचन्द्र (1088-1173 ई.) कृत प्रमाणमीमांसा आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त जिनेश्वरसूरि (10वीं-11वीं शती) के प्रमालक्ष्म, चन्द्रसेनसूरि (11वीं- 12वीं शती ) रचित उत्पादादिसिद्धि, अनन्तवीर्य (11वीं-12वीं शती) विरचित टीकाग्रन्थ प्रमेयरत्नमाला, विमलदास रचित सप्तभंगीतरंगिणी, यशोविजय (17वीं शती) कृत जैनतर्कभाषा आदि ग्रन्थों को महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है, जिनमें प्रमाणों के द्वारा प्रमेय पदार्थ की परीक्षा की गयी। इनके पश्चात् भी जैन न्यायविषयक ग्रन्थों का लेखन चलता रहा। ___ जैन न्याय अत्यन्त समृद्ध है । जैनदर्शनानुसारी प्रमाणविषयक ग्रन्थों का समावेश तो जैनन्याय के प्रतिपादक ग्रन्थों में होता ही है, किन्तु जैनेतर प्रमेय - पदाथों के खण्डन तथा जैन दर्शन में मान्य तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्तों के प्रतिपादन में भी प्रमाणों का उपयोग होने से तत्सम्बद्ध ग्रन्थ भी जैन न्याय के ग्रन्थ कहे जा सकते हैं। इस प्रकार जैनन्याय का फलक विस्तृत है।