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-जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
4. स्वपरव्यवसायिज्ञानंप्रमाणम्।- वादिदेवसूरि, प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1.2
स्व एवं पर का व्यवसायात्मक अर्थात् निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण होता है।
प्रमाण के उपर्युक्त लक्षणों से विदित होता है कि जो ज्ञान संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रहित होता है तथा स्व एवं पर का निश्चायक होता है वह प्रमाण कहलाता है।
'प्रमाण' शब्द 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'माङ् माने' धातु से 'ल्युट्' (अन) प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है। साधारणतः 'प्रमीयतेऽनेन इति' निरुक्ति के अनुसार जिससे प्रमेय पदार्थ का ज्ञान किया जाय, उसे प्रमाण कहा जाता है। प्रमाण प्रमेयज्ञान के लिए साधकतम कारण किं वा करण है। इसीलिए प्रमाण को परिभाषित करने वाले दार्शनिक 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' शब्दावली का भी प्रयोग करते हैं। प्रमा एवं प्रमिति प्रमेयज्ञान के ही पर्यायार्थक-शब्द हैं। प्रमाण को प्रमेयज्ञान का करण मानकर ही न्यायदर्शन में इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष, सांख्यदर्शन में इन्द्रियवृत्ति
और मीमांसादर्शन में ज्ञातृव्यापार को प्रमाण कहा गया है। जैनमत में प्रमाण ज्ञानात्मक होता है, इसलिए जैनदार्शनिक इन्द्रिय, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानने का खण्डन करते हैं। जैनदार्शनिकों के अनुसार प्रमाण हमें हेय पदार्थ को छोड़ने, उपादेय पदार्थ को ग्रहण करने एवं उपेक्षणीय पदार्थ की उपेक्षा करने का ज्ञान कराता है, इसलिए वह ज्ञानात्मक ही हो सकता है, अचेतनात्मक इन्द्रियादि नहीं।
बौद्धदर्शन भी प्रमाण को ज्ञानात्मक मानता है, किन्तु वह निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण अंगीकार करता है जो जैनदर्शन को अभीष्ट नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान सविकल्पक ही होता है, निर्विकल्पक नहीं । निर्विकल्पक ज्ञान निश्चयात्मक नहीं होने से प्रमाण नहीं हो सकता। जैनदर्शन में ज्ञान की पूर्वावस्था के रूप में 'दर्शन' को स्वीकार किया गया है, जो भी चेतन आत्मा का ही एक गुण है, किन्तु उसे निर्विकल्पक होने के कारण प्रमाणकोटि से बाहर रखा गया है। जैन दार्शनिक ऐसे निश्चयात्मक ज्ञान को ही प्रमाण अंगीकार करते हैं, जो संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित हो।'
प्रमाण एवं ज्ञान को सूर्य की भांति स्व-पर प्रकाशक मानना जैनदर्शन का वैशिष्ट्य है। जिस प्रकार सूर्य स्वयं को भी प्रकाशित करता है एवं जगत् को भी