________________
192
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
'अनुयोगद्वारसूत्र' एवं 'भगवतीसूत्र' में प्रमाण के चार भेद प्रतिपादित हैं - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. उपमान, एवं 4. आगम । यह प्रमाण-विभाजन 'न्याय-सूत्र' एवं 'चरक संहिता' से प्रभावित है। 'नन्दी-सूत्र' में ज्ञान के दो भेद हैं - प्रत्यक्ष एवं परोक्ष । ज्ञान के ये दो भेद ही जैन नैयायिकों ने प्रमाण के दो भेदों के रूप में प्रतिष्ठित किये हैं, ऐसा प्रतीत होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण के पुनः दो भेद हैंसांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक (मुख्य) । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैंइन्द्रिय निमित्त एवं अनिन्द्रिय निमित्त । पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं
अवधिज्ञान, मनःपयर्यज्ञान और केवलज्ञान । इनमें अवधि एवं मनः पर्यय ज्ञान विकल-प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान सकल-प्रत्यक्ष । परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैंस्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । सिद्धसेन ने न्यायावतार में परोक्ष-प्रमाण के अनुमान एवं आगम- ये दो भेद ही निरूपित किए हैं। वादिराज ने न्यायविनिश्चय-विवरण में इसका अनुसरण किया है, किन्तु वे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को अनुमान-प्रमाण के गौणभेदों में स्थान देते हैं। संक्षेप में प्रमाण-भेदों को इस प्रकार दर्शाया जा सकता हैतत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त प्रमाण-भेद
प्रमाण
प्रत्यक्ष
परोक्ष
अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान मतिज्ञान श्रुतज्ञान
उत्तरकालीन विभाजन (भट्ट अकलंक एवं उनके पश्चात् )
प्रमाण
प्रत्यक्ष
परोक्ष सांव्यवहारिक पारमार्थिक (मुख्य)
1. स्मृति इन्द्रियनिमित्त अनिन्द्रियनिमित्त सकल' प्रत्यक्ष विकल प्रत्यक्ष 2. प्रत्यभिज्ञान
केवलज्ञान
13. तर्क अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान !
4. अनुमान
5. आगम नोटः सकल एवं विकल-प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग वादिदेवसूरि ने किया है।