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जैन न्याय में प्रमाण-विवेचन
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'दर्शन' भी निर्विकल्पक होने से प्रमाण की कोटि में नहीं आता है। 5. यह प्रमाण जीवन-व्यवहार के लिए उपयोगी है। इसका लक्षण सम्यग्ज्ञान एवं
तत्त्वज्ञान के रूप में भी दिया जाता है, किन्तु यह संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित एवं वस्तु का यथाभूत ज्ञान होने से सम्यग्ज्ञान या तत्त्वज्ञान है। इसके लिए सम्यग्दर्शन होना आवश्यक नहीं है। सम्यग्दर्शन युक्त ज्ञान तो प्रमाण होता ही है, किन्तु व्यवहार में सम्यग्दर्शनरहित ज्ञान भी प्रमाण हो जाता है। जैसे- यह पानी स्वच्छ, निर्दोष और पेय है- कोई यह जानकर
पानी को पीता है, उसका ज्ञान सम्यग्दर्शन के बिना भी प्रमाण है। 6. प्रमाण जीवन-व्यवहार में हेय, उपादेय एवं उपेक्षणीय का ज्ञान कराता है 7. यह स्व-पर प्रकाशक होता है। 8. जो पदार्थ जैसा है उसका वैसा ज्ञान कराने के कारण प्रमाण को अविसंवादक
कहा जाता है। यह अविसंवादकता भी प्रमाण को निश्चयात्मक ज्ञान सिद्ध
करती है। 9. मीमांसा एवं बौद्ध दार्शनिक अज्ञात या अनधिगत पदार्थ के ग्राही ज्ञान को
प्रमाण मानते हैं, किन्तु जैन दार्शनिक अधिगत या ज्ञात पदार्थ के पुनः होने
वाले ज्ञान को भी प्रमाण की कोटि में रखते हैं। 10. इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष आदि भी ज्ञान में सहायक होते हैं, किन्तु जैनदर्शन
में इन्हें प्रमाण नहीं माना गया, क्योंकि ये ज्ञानात्मक नही हैं, अचेतन हैं। 11. स्व-पर व्यवसायात्मकता स्वरूप प्रमाण का लक्षण प्रमाण के सभी भेदों में
घटित होता है। प्रमाण-भेद
भारतीय दर्शनों में प्रमाणों की संख्या को लेकर मतभेद है। चार्वाकदर्शन में मात्र एक प्रत्यक्ष प्रमाण मान्य है। वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शन प्रत्यक्ष एवं अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं। सांख्यदर्शन इनमें आगम (आप्तवचन) को मिलाकर प्रमाणों की संख्या तीन स्वीकारता है। न्यायदर्शन में उपमान प्रमाण सहित चार प्रमाण स्वीकृत हैं। प्रभाकर मीमांसक अर्थापत्ति प्रमाण सहित पाँच तथा भाट्ट मीमांसक इन पाँच में अनुपलब्धि (अभाव) सहित छह प्रमाण मानते हैं। वेदान्त दार्शनिक भी ये छहों प्रमाण व्यवहार से स्वीकार करते हैं।
जैनदर्शन में प्रमाण के दो प्रकार हैं- 1. प्रत्यक्ष एवं 2. परोक्ष । इन दो भेदों का सर्वप्रथम उल्लेख उमास्वाति/उमास्वामी के तत्त्वार्थ-सूत्र में हुआ है। इससे पूर्व