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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
सम्यग्दृष्टि होता है तथा वही मोक्ष में जाने की योग्यता रखता है। जैनधर्म में अन्यलिंगी को भी सिद्ध माना गया है। सम्यग्दर्शन का वास्तविक स्वरूप आन्तरिक रूप से मोहकर्म के भेदन की प्रक्रिया से प्रारम्भ होता है। जो मोहकर्म को तोड़ता हुआ कर्मास्रव को रोककर संवर एवं निर्जरा की साधना करता है, वह सम्यग्दर्शन सहित रत्नत्रय की साधना करता हुआ मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। जैन दर्शन ने सम्यग्दर्शन की प्रक्रिया को पाँच लब्धियों, त्रिविध करण आदि के माध्यम से जो स्पष्टता प्रदान की है वह मुमुक्षुओं के लिए उपयोगी है तथा जैन दर्शन की विशेषता को इंगित करती है। फिर भी यत्किंचित् बाह्य भेदों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि मात्र जैन धर्म के अनुयायी ही मुक्तिपथ के अधिकारी हैं, अन्य नहीं।
सम्यग्दर्शन होने पर जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है तथा जीवन दृष्टि में ऐसा परिवर्तन घटित होता है जो जीवन की दिशा ही बदल देता है। जीवन में फिर शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य की स्वतः अभिव्यक्ति हो जाती है। सन्दर्भ:1. जीवादिसद्दहणं सम्मत्ता- समयसार, गाथा 155 2. भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।-समयसार, गाथा 11 3. भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं चं।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्त।। समयसार, गाथा 13 4. राजशेखर कृत षड्दर्शनसमुत्त्वय, श्लोक 9 5. हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे।
निग्गंथपव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्त।।-मोक्ष पाहुड, गाथा 90 6 कार्तिकयानुप्रेक्षा, गाथा 317 7. आचारांगसूत्र, 1.5.5 सूत्र 168 8 उपासकदशांगसूत्र, आनन्द श्रावक प्रकरण 9. जैनदर्शनसार, हंसा प्रकाशन, जयपुर, पृ. 12 10. समयसार, गाथा 155 पर तात्पर्यवृत्ति, अगास संस्करण, पृ. 220 11. तत्त्वार्थसूत्र,1.1 12 सर्वार्थसिद्धि, 1.2.11 धातूनामनेकार्थत्वाददोषः। 13. उत्तराध्ययनसूत्र, 19.13 14. (i) महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 16