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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
6. आत्म-विशुद्धि से अधिक महत्त्व धन को देना आदि।
मिथ्यात्वी व्यक्ति सांसारिक सुखों की पूर्ति हेतु धर्म-क्रिया का अवलम्बन लेता है। वह धार्मिक प्रवृत्तियों को सांसारिक सुखों की पूर्ति का माध्यम समझता है। मिथ्यात्वी का आचरण बाह्य रूप से तप-त्याग का होते हुए भी आन्तरिक रूप से संसार की अभिलाषा से ही जुड़ा रहता है।
विभिन्न देवी-देवताओं को पूजना, उनसे लौकिक कामनाओं की पूर्ति हेतु याचना करना भी मिथ्यात्व का ही एक रूप है जो आज जैनों में भी प्रचलित है, किन्तु यह तो मिथ्यात्व का स्थूल रूप है, इसके मूल में तो मिथ्यात्व का सूक्ष्म, किन्तु भयंकर रूप छिपा हुआ है और वह है आत्मेतर पदार्थों की प्राप्ति में सुख मानना। आत्मेतर पदार्थ हैं-आत्मा से भिन्न पदार्थ, यथा-शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, भवन, वाहन आदि। इन पर-पदार्थों में सुख मानना मिथ्यात्व है। मनुष्य इन पर-पदार्थों से सुख प्राप्त करने की मान्यता का इतना आदी है कि उसे यह भी ज्ञात नहीं कि सुख का स्रोत बाहर नहीं भीतर है। सुख की तलाश बाहर करना एवं उसे अन्य पदार्थों में मानना मिथ्यात्व ही है। भगवान् महावीर ने सुख-दुःख का कर्ता स्वयं आत्मा को माना है, इसलिए अन्य से सुख-दुःख चाहना उनकी दृष्टि में मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन:भारतीय परम्पराके परिप्रेक्ष्य में
सम्यग्दर्शन का जैनदर्शन में कर्मप्रकृतियों के आधार पर जितना सूक्ष्म विवेचन हुआ है, वैसा अन्य दर्शनों में प्राप्त नहीं होता है। किन्तु न्यूनाधिक रूप में सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि दर्शनों में सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि का कहीं साक्षात् तो कहीं प्रकारान्तर से विवेचन प्राप्त होता है। सांख्यदर्शन में चेतन पुरुष एवं जड़ प्रकृति में भेद-विज्ञान के अभिप्राय से युक्त 'विवेक ख्याति' शब्द का प्रयोग हुआ है।" पुरुष जब अपने को प्रकृति से भिन्न अनुभव कर लेता है तो वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। वेदान्तदर्शन में अधिकारी का निरूपण करते हुए उसे साधनचतुष्टय से सम्पन्न स्वीकार किया गया है।"साधनचतुष्टय के अन्तर्गत नित्यानित्य वस्तुविवेक, इहामुत्रार्थफलभोगविराग, शमादिषट्कसम्पत्ति एवं मुमुक्षुत्व की गणना की गई है।" नित्य एवं अनित्य पदार्थों में भेदबुद्धि को नित्यानित्य-वस्तुविवेक कहा गया है। इस लोक एवं परलोक में प्राप्त होने वाले फल-भोग के प्रति विरक्ति होना इहामुत्रार्थ