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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
शरण में जाना शक्य नहीं है। इनकी शरण ग्रहण करना या श्रद्धा करना सन्मार्ग को स्वीकार करना है।
विश्व में अनेक धर्म हैं। सभी धर्मों के अनुयायी उस धर्म के अनुयायियों को आस्तिक या सम्यक्त्वी समझते हैं तथा अन्य धर्मावलम्बियों को पाखण्डी, मिथ्यात्वी एवं नास्तिक मानते हैं। यही नहीं दूसरे धर्मावलम्बियों को वे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। अपने धर्म की बुराइयों को भी अच्छाई समझते हैं तथा अन्य धर्मों की अच्छाइयों को भी बुराई के रूप में देखते हैं । एक धर्मानुयायी की अन्य धर्मानुयायियों के प्रति इस प्रकार की पक्षपातपूर्ण दृष्टि साम्प्रदायिकता कही जाती है। सम्प्रदाय का होना बुरा नहीं, क्योंकि वह एक व्यवस्था है, किन्तु सम्प्रदायाभिनिवेश या साम्प्रदायिकता का होना बुरा है। यह सम्प्रदायाभिनिवेश मनुष्य को संकीर्ण बनाता है। सम्प्रदाय जहाँ अधिगमज सम्यग्दर्शन का निमित्त बनती है वहाँ साम्प्रदायिकता सम्यग्दर्शन पर आवरण डाल देती है। ___साम्प्रदायिकता का दोष विश्व के अन्य धर्मों की भांति जैनों में भी दिखाई देता है। जैनों में जैनेतर धर्मों के प्रति घृणा एवं हीनता का भाव प्रायः कम है, किन्तु जैनों की जो उपसम्प्रदायें हैं, वे एक दूसरे के अनुयायियों को मिथ्यात्व के कलंक से दूषित करती हैं। यह दोष तभी सम्भव है जब सम्यग्दर्शन के आध्यात्मिक स्वरूप का ग्रहण नहीं हुआ है, मात्र सम्प्रदाय का व्यामोह है। सम्यग्दर्शन होने पर सच्चाई का बोध तो होता है, किन्तु सद्भाव समाप्त नहीं होता। एक-दूसरे पर छींटाकशी सद्भाव को समाप्त करती है। गलत प्ररूपणा एवं असद् आचरण का समर्थन करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु द्वेषभाव उत्पन्न किए बिना हेय एवं उपादेय का बोध कराना चाहिए तथा तत्त्व के प्रति रुचि उत्पन्न करनी चाहिए। मिथ्यात्वकीत्याज्यता
सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान तो सम्यक् होता ही है, किन्तु आचरण भी सम्यक् हो जाता है। जब तक आचरण सम्यक् नहीं होता तब तक वह मुक्ति का साधन नहीं बनता। सम्यग्दर्शन (निश्चय) के अभाव में बाह्य तप-त्याग भी कोई उल्लेखनीय महत्त्व नहीं रखते। आचारांगसूत्र की नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने कहा है