________________
सम्यग्दर्शन
सद्दर्शनं महारत्नं विश्वलोकैकभूषणम् । मुक्तिपर्यन्तकल्याण- दानदक्षं प्रकीर्त्तितम् ।।
175
-ज्ञानार्णव 6.53
सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महान् रत्न है, समस्त लोक का भूषण है, आत्मा को मुक्ति प्राप्त होने तक कल्याण प्रदान करने वाला है। एक आचार्य ने सम्यक्त्व की महिमा में कहा है
सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्वबन्धोर्न परो हि बन्धुः, सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः ।।
सम्यक्त्व रूपी रत्न से बढ़कर दूसरा कोई रत्न नहीं हैं। सम्यक्त्व रूपी मित्र से बढ़कर अन्य कोई मित्र नहीं है, सम्यक्त्व रूपी बन्धु से बढ़कर अन्य कोई बन्धु नहीं है तथा सम्यक्त्व रूपी लाभ से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं है। सम्यक्त्व होने पर की गई तप आदि की साधना तीव्रता से कर्म - निर्जरा का साधन बनती है। इसलिए भगवती आराधना में कहा गया है कि सम्यक्त्व का प्राप्त होना त्रैलोक्य की प्राप्ति से भी श्रेष्ठ है । "
20
22
23
नन्दीसूत्र में कहा गया है कि जो सम्यग्दृष्टि होता है, उसका श्रुत श्रुतज्ञान होता है तथा मिथ्यादृष्टि का श्रुत श्रुत अज्ञान होता है । " इसका तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शन एक महत्त्वपूर्ण आन्तरिक दृष्टि है, जिसके कारण अज्ञान ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। कर्मक्षय एवं दुःख - विमुक्ति का जो उपाय बताया गया है, उसमें सम्यग्दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् नहीं होता तथा ज्ञान सम्यक् हुए बिना चारित्र सम्यक् नहीं होता । " आचारांग निर्युक्ति में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि के ही तप, ज्ञान, चारित्र आदि सफल होते हैं। ” आचारांग सूत्र में एक वाक्य प्राप्त होता है- सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । ( आचारांग 1.3.2 ) इस वाक्य के दो अर्थ किए जाते हैं- (1) सम्यक्त्वदर्शी साधक पाप नहीं करता । ( 2 ) समत्वदर्शी साधक पाप नहीं करता। इनमें प्रथम अर्थ तभी सम्भव है जब मूल पाठ में 'सम्मत्तदंसी' पद हो तथा दूसरा अर्थ तब सम्भव है जब मूलपाठ में 'समत्तदंसी' पद हो। दोनों अर्थ अपना महत्त्व रखते हैं। सम्यग्दृष्टि होने पर पाप की प्रवृत्ति न्यून हो जाती है। इसकी पुष्टि समयसार के इस वाक्य से भी होती है- "जं कुणदि