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श्रुतज्ञान का स्वरूप
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जिससे तत्त्व का बोध हो, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिनशासन में वह ज्ञान है। इसी प्रकार आगे कहा- जिससे राग से विरक्ति हो, जिससे श्रेय में अनुरक्ति हो, जिससे सब जीवों के प्रति मैत्रीभाव हो वह जिनशासन में ज्ञान है । यह ज्ञान ही श्रुतज्ञान कहा जा सकता है। श्रुतज्ञान स्वयं का आन्तरिक प्रकाश है जो व्यक्ति को सही आचरण का मार्ग प्रशस्त करता है । आचारांगसूत्र में कहा है- “जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया । 28 जो आत्मा है वह विज्ञाता है तथा जो विज्ञाता है वह आत्मा है। ज्ञान वस्तुओं को एवं स्वयं को जानने की वह शक्ति है जो कभी नष्ट नहीं होती । श्रुतज्ञान पर कभी भी पूर्ण आवरण नहीं आता है। प्रत्येक जीव को यह किसी न किसी रूप में अनुभूत होता है । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार यह स्वीकार किया गया है कि केवलज्ञान अथवा श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग सदैव उद्घाटित रहता है ।
षट्खण्डागम की धवला टीका में सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्तक जीव में जो जघन्य ज्ञान होता है उसे लब्ध्यक्षर कहा गया है। उस ज्ञान का विनाश नहीं होने से तथा एक स्वरूप में अवस्थान होने से उसकी अक्षर संज्ञा है । द्रव्यार्थिक नय से सूक्ष्म निगोद जीव में भी बने रहने से इस ज्ञान की अक्षर संज्ञा है । अतः कहा गया है'अक्खरस्साणंतिमभागो णिच्चुग्घाडिओ ।" धवलाटीका में यह केवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग कहा गया है । गोम्मटसार में भी कहा गया है- हवदिहु सव्वजहणणं निच्चुग्घाडं निरावरणं ।" निरावरण केवलज्ञान जघन्य रूप में नित्य उद्घाटित रहता है। विशेषावश्यकभाष्य एवं उसकी हेमचन्द्रकृत बृहद्वृत्ति में भी यह चर्चा की गई है" तथा यह कहा गया है कि जिस प्रकार केवलज्ञान का अक्षर का अनन्तवाँ भाग नित्य उद्घाटित रहता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान का भी अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है । वहां पर यह भी संकेत किया गया है कि सर्वजीव शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं है, क्योंकि केवलज्ञानियों के तो केवलज्ञान पूर्ण उद्घाटित रहता है, अतः उनको छोड़कर शेष जीवों के उसका अनन्तवां भाग उद्घाटित रहता है, ऐसा कहना चाहिए । इसी प्रकार श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में भी समस्त द्वादशांगी के वेत्ताओ को छोड़कर शेष जीवों के श्रुतज्ञान का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित कहना चाहिए। 2 इसका तात्पर्य है कि न्यूनाधिकरूप में श्रुतज्ञान सब जीवों को प्राप्त है । इस श्रुतज्ञान
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