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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
तत्त्व जैसे हैं उन पर वैसा ही श्रद्धान करना अथवा उनको वैसा ही मानना सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन का ऐसा ही लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में भी प्राप्त होता है। वहाँ कहा गया है- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' (तत्त्वार्थसूत्र 1.2) अर्थात् तत्त्वार्थ पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। तत्त्वार्थ शब्द का आशय है- जीव, अजीव आदि तत्त्व। इन्हें ही अर्थ या पदार्थ कहा गया है। आगम में इन तत्त्वों की संख्या नौ हैजीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्षा तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य एवं पाप के अतिरिक्त सात तत्त्व प्रतिपादित हैं। इन तत्त्वों के यथाभूत स्वरूप पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इन तत्त्वों के स्वरूप बोध से बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रिया का बोध होता है, इसलिए इन तत्त्वों का ज्ञान एवं उन पर श्रद्धान आवश्यक है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भूतार्थ (यथाभूत अर्थ) का आश्रय लेने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा है तथा भूतार्थ में वे जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों का ग्रहण करते हैं।' 2. देव, गुरु एवं धर्म(तत्त्व)पर श्रद्धान - सम्यग्दर्शन का एक व्यावहारिक लक्षण है- सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर आस्था। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इसी प्रकार का लक्षण प्रदान करते हुए कहा है
यादेवेदेवताबुद्धिर्गुरौच गुरुतामतिः।
धर्म च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते।। -योगशास्त्र, 2.2 वीतराग देव को देव समझना, सद्गुरु को गुरु मानना तथा जिनप्रज्ञप्त धर्म में धर्मबुद्धि होना सम्यक् श्रद्धान है अथवा सम्यग्दर्शन है। योगशास्त्र के इस कथन का आधार सम्भव है आवश्यक सूत्र की निम्नांकित गाथा रही हो।
अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवंसुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तंतत्तं,इयसम्मत्तंमए गहियं।। अरिहन्त मेरे देव हैं, सुसाधु मेरे गुरु हैं तथा जिनप्रज्ञप्त तत्त्व (धर्म) है, यह सम्यक्त्व मेरे द्वारा जीवन पर्यन्त के लिए ग्रहण किया गया है। हरिभद्रसूरि के षड्दर्शन समुच्चय (श्लोक 46) में भी जिनेन्द्र को देवता कहा गया है- जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः ।राजशेखरसूरि (13 वीं शती) ने गुरु का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है