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सम्यग्दर्शन
आचारांग का एक वाक्य है- जहा अंतो तहा बाहिं। अर्थात् व्यक्ति जैसा भीतर में होता है वैसा ही बाहर होता है। जैसी उसकी आन्तरिक दृष्टि होती है वैसा ही उसका जीवन होता है। भीतर में यदि उसका सोच संकीर्ण है तो व्यवहार में भी संकीर्णता आ ही जाएगी। भीतर में जैसा दृष्टिकोण होता है, जैसी मान्यता होती है, जैसी श्रद्धा या विश्वास होता है, व्यक्ति का जीवन वैसा ही बनता है। व्यक्ति चाहे तो अपनी दृष्टि बदल कर जीवन बदल सकता है। दुःख से मुक्त होने के लिए यह दृष्टि का परिवर्तन ही प्रथम आधार है। यह यदि सम्यक् हो जाए तो उसे सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शन कहा जाता है। दर्शन सम्यक् होते ही व्यक्ति का ज्ञान स्वतः सम्यक् हो जाता है तथा इन दोनों के सम्यक् होने पर आचरण सम्यक् हो जाता है। जब ये तीनों सम्यक् हों तो मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग पूर्णता को प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन को मापने का बाहरी पैमाना है- शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य का होना। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति में क्रोधादि कषायों का शान्त होना शम कहलाता है, दुःख से मुक्ति की तीव्र अभिलाषा संवेग है, विषय-भोगों से विरक्ति निर्वेद है, दुःखी प्राणियों के दुःख का संवेदन होना अनुकम्पा है तथा सभी जीवों के अस्तित्व एवं दुःखमुक्ति को स्वीकार करना आस्तिक्य है। दुःख से मुक्त हुए अरिहन्तों एवं सिद्धों, दुःखमुक्ति के मार्ग के उपदेष्टा गुरुओं तथा दुःखमुक्ति के आचरण स्वरूप धर्म पर श्रद्धा होना भी सम्यग्दर्शन का स्वरूप स्वीकार किया गया है।
जीवन, जगत्, सुख-दुःख आदि के सम्बन्ध में प्रत्येक जीव कोई न कोई व्यक्त या अव्यक्त मान्यता, श्रद्धा, विश्वास या धारणा लिए हुए है। यह मान्यता, विश्वास, श्रद्धा या धारणा ही उसकी दृष्टि है। इस दृष्टि के अनुसार प्रत्येक जीव एक ही घटना के प्रति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखता है तथा भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। कोई एक घटना में सुख का अनुभव करता है तो दूसरा उसी घटना में दुःख का अनुभव करता है। एक उसे त्याज्य समझता है तो दूसरा उसे ग्राह्य मानता है। एक की दृष्टि मोह की प्रगाढता से दूषित रहती है तो दूसरे की दृष्टि निर्मल एवं निरासक्त होती है। एक धन-सम्पत्ति, भूमि-भवन आदि को प्राप्त कर उन्हें पकड़े रखने में हित मानता है तो दूसरा उनकी तुच्छता समझकर उन्हें त्याग देने में हित समझता है। इस प्रकार यह दृष्टि जीव की जीवन शैली का निर्धारण करती है।