________________
सम्यग्दर्शन
169
ग्लास का चश्मा चढ़ा लिया जाये तो बाहर सब कुछ हरा ही दिखाई देता है तथा व्यवहार भी फिर उसी के अनुसार किया जाता है। जब बाह्य नेत्रदृष्टि का भी इतना प्रभाव परिलक्षित होता है तो अन्तःदृष्टि की तो बात ही क्या? भीतर में दृष्टि भोग की है तो सबकुछ भोग्य ही नजर आता है, भीतर में भोगों को त्याज्य समझ लिया है, तो सारे भोग तुच्छ एवं त्याज्य नजर आते हैं। दृष्टि की निर्मलता को सम्यग्दृष्टि कहा गया है। जब दृष्टि सम्यक् से पुनः मलिन होने लगे, किन्तु पूर्णतः मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हो, ऐसी मिश्रित अवस्था को मिश्रदृष्टि कहा जाता है। चूँकि मिश्रदृष्टि में जीव अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहता, इसलिए हम प्रायः मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्दृष्टि अवस्था में ही जीते हैं। इनमें भी दृष्टि नैर्मल्य के आधार पर आकलन किया जाये तो मिथ्यादृष्टि जीव ही अधिक हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीव तो प्रायः मिथ्यादृष्टि ही होते हैं, किन्तु पंचेन्द्रियों में मनुष्यों की चर्चा की जाये तो वे भी अधिकतर मिथ्यादृष्टि ही हैं।
'दृष्टि' का अपर नाम 'दर्शन' भी है। संस्कृत में ये दोनों शब्द 'दृश्' (देखना) धातु से निष्पन्न हुए हैं। 'दृश्' धातु से जब ‘क्तिन्' प्रत्यय किया जाता है तो 'दृष्टि' शब्द निष्पन्न होता है तथा जब 'ल्युट्' (अन) प्रत्यय किया जाता है तो 'दर्शन' शब्द निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘दृष्टि' एवं 'दर्शन' शब्द एक ही 'दृश्' धातु से निष्पन्न हैं। दृश् का अर्थ है- देखना, किन्तु सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद देवनन्दी ने प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में दर्शन का 'श्रद्धान' अर्थ स्वीकार किया है।
दर्शन शब्द का प्रयोग जैनदर्शन में दो प्रकार से हुआ है- एक तो दर्शनावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम के लिए तथा दूसरा जीव के द्वारा दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम के लिए। यहाँ पर 'सम्यग्दर्शन' का अभिप्राय दर्शनमोह कर्म के क्षयादि से प्रकट 'दर्शन' से है। सम्यग्दर्शन के दो उपाय ___ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु तत्त्वार्थसूत्र (1.2) में दो उपाय प्रतिपादित हैं"तन्निसर्गादधिगमाद्वा" वह सम्यग्दर्शन स्वतः एवं अधिगम अर्थात् गुरु आदि के उपदेश से होता है। परिवार में किसी की मृत्यु देखकर किसी को यह बोध हो सकता है कि संसार अनित्य है, जीवन भी नश्वर है, इसमें मोह ममता करना दुःख का