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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
3. आत्म-अनात्म विवेक-तत्त्वार्थश्रद्धान एवं जिनागम पर श्रद्धान का फल होता है- आत्मा का पर पदार्थों से भिन्नता का अनुभव। पर से आत्म-तत्त्व की भिन्नता निश्चय सम्यग्दर्शन है। पण्डित चैनसुखदास ने जैन दर्शनसार में सम्यग्दर्शन का इसी प्रकार का लक्षण दिया है- सम्यग्दर्शनं हि आत्मेतरविवेकरूपम्। आत्मा एवं पर पदार्थों में पृथक्ता का बोध सम्यग्दर्शन है। इस कथन का आधार आचार्य जयसेन का यह वाक्य रहा होगा-"अथवा तेषामेव भूतार्थनाधिगतानां पदार्थानां शुद्धात्मनः सकाशात् भिन्नत्वेन सम्यगवलोकनं निश्चयसम्यक्त्वम्।"" भूतार्थ से ज्ञात पदार्थों की शुद्धात्मा से भिन्नता का सम्यक् अनुभव करना या जानना निश्चय सम्यक्त्व है। ऐसा सम्यक्त्व होने पर शुद्धात्मा की उपादेयता के प्रति श्रद्धान होता है। सम्यग्दर्शन से युक्त जीव आत्मा में लीन रहता है, जैसा कि कुन्दकुन्द कहते हैंअप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।(भावपाहुड 31) आत्मस्वरूप में लीन जीव सम्यग्दृष्टि होता है। सम्यग्दर्शन के इस स्वरूप को आत्मविनिश्चय, ग्रन्थिभेद आदि शब्दों से भी व्यक्त किया जाता है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन निश्चय एवं व्यवहार दोनों प्रकार का हो सकता है। जब तक तत्त्वार्थों के स्वरूप का आत्मिक स्तर पर अनुभव नहीं हुआ है तब तक उन पर हुई श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है तथा आत्म-अनात्म विवेक निश्चय सम्यग्दर्शन का रूप है। देव, गुरु एवं धर्म पर सही श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन के लिए मात्र ‘सम्यक्त्व (सम्मत्तं) शब्द का प्रयोग भी आगम में बहुशः हुआ है। वैसे सम्यक्त्व शब्द सम्यक्पने या यथार्थता का द्योतक है जिसका दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र तीनों के साथ प्रयोग होता है, यथा- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र। तत्त्वार्थसूत्र में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:'' सूत्र में स्थित ‘सम्यक्' पद का दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र तीनों के साथ अन्वय हुआ है। फिर भी सम्यक्त्व शब्द सम्यग्दर्शन के अर्थ में ही रूढ है, क्योंकि तीनों में सम्यग्दर्शन की प्रधानता है । दर्शन सम्यक् होने पर ही ज्ञान सम्यक् होगा और ज्ञान सम्यक् होने पर ही चारित्र सम्यक् होगा। दृष्टि का महत्त्व एवं सम्यग्दर्शन
जैसी दृष्टि होती है, प्रायः सृष्टि वैसी ही प्रतीत होती है । नेत्रों पर यदि हरे