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सम्यग्दर्शन
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विश्वास करना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु समुचित कदम है । यह विश्वास या यह श्रद्धा भी सम्यग्दर्शन ही है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर व्यक्ति उन्मार्ग से सन्मार्ग पर आ जाता है एवं आत्मा का इतर पदार्थों से भेदज्ञान करने में समर्थ होता है । वह भेदज्ञान ही सम्यग्दर्शन है ।
सम्यग्दर्शन का प्रकटीकरण एवं उसकी प्रक्रिया
दृष्टि की सम्यक्ता एवं इसके मिथ्यात्व के मापदण्ड का आधार जैन ग्रंथों में मोह की कमी या आधिक्य को स्वीकार किया गया है। सम्यग्दृष्टि जीव वे हैं जिन्होंने प्रगाढ़ मोह को शिथिल कर दिया है। पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो सम्यग्दृष्टि का प्रकटीकरण तब होता है, जब दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों (सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय एवं मिश्रमोहनीय) का तथा चारित्रमोहनीय के अनन्तानुबन्धीचतुष्क (अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ) का क्षय, उपशम या क्षयोपशम कर दिया जाता है | चारित्रमोहनीय मोह का आचरण सम्बन्धी रूप है जो क्रोधादि के माध्यम से प्रकट होता है | दर्शनमोहनीय मोह का दृष्टिगत या विश्वासगत रूप है, जो अधिक भयंकर है । दृष्टि ही मलिन हो तो स्वच्छता नजर नहीं आ सकती। अन्तः दृष्टि में मलिनता को ही मिथ्यात्व कहा गया है ।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य एवं करण इन पाँच लब्धियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पूर्व बद्ध कर्मों के अनुभाग अथवा रस की तीव्रता जब कम होती है तथा विशुद्धि के कारण अनुभाग के स्पर्धक अनन्तगुण हीन होते हुए उदीर्ण होते हैं तो उसे क्षयोपशम लब्धि कहते हैं । " क्षयोपशम ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय - इन चार घाती कर्मों का ही होता है। विशेषतः मोह में कमी ही क्षयोपशम लब्धि की द्योतक होती है, जिसमें जीव अपने ज्ञान का उपयोग तत्त्वबोध में करता है । प्रतिसमय अनन्तगुणित हीन क्रम से अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न हुआ साता वेदनीय आदि शुभ कर्मों के बन्ध का निमित्तभूत और असाता आदि अशुभ कर्मों के बन्ध का विरोधी जो जीव का परिणाम है उसकी प्राप्ति विशुद्धि लब्धि है। " तीर्थंकर, गुरु आदि का उपदेश श्रवण कर उसके अर्थ के ग्रहण, धारण और विचारण की शक्ति को देशना लब्धि कहते हैं। देशनालब्धि कदाचित् मिथ्यात्वी के निमित्त से भी प्राप्त हो सकती है। मिथ्यादृष्टि