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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
है ।13 लोढा साहब का चिन्तन है कि यह श्रुतज्ञान सबको सहज रूप से प्राप्त है तथा यह ही मोक्ष का उपाय है। ___ वस्तुतः मतिज्ञान से जो वस्तु आदि का ज्ञान होता है, उसमें आत्महित की दृष्टि से हेय, उपादेय आदि का बोध श्रुतज्ञान से होता है। यह आत्मा के द्वारा सुने जाने से श्रुत कहा गया है- “श्रूयते आत्मना तदिति श्रुतम्।”4 मैंने अपने एक अंग्रेजी आलेख में श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में लिखा है- "Srutajnana is theKnowledge which leads a person to decide distinction between the real needs and futile wants in life. It enables a person in attaining detachment from the worldly allurements and motivates him to proceed towards the salvation from sorrows. It is a big power for spiritual development of a soul. When it is obscured or perverted, a soul cannot decide the right path."25 श्रुतज्ञान का महत्त्व
मुक्ति के लिए श्रुतज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को मोक्ष-मार्ग के रूप में प्रतिपादित किया जाता है तो सम्यग्ज्ञान की भूमिका में श्रुतज्ञान की महत्ता सर्वाधिक है। यद्यपि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हैं, किन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति एवं दुःखमुक्ति के लिए श्रुतज्ञान अधिक उपयोगी है। श्रुतज्ञान को आत्मज्ञान भी कहा जा सकता है। बाह्य विश्व को जानने में मतिज्ञान की सीमा है, किन्तु यह श्रुतज्ञान को प्रकट करने में सहायक हो सकता है। श्रुतज्ञान स्वयं को जानने में सहायक है। यह इन्द्रियों के माध्यम से प्रकट नहीं होता । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है- श्रुतमनिन्द्रियस्य । यहाँ 'अनिन्द्रिय' शब्द मन एवं आत्मा दोनों का वाचक है । इस तरह श्रुतज्ञान मन एवं आत्मा के द्वारा प्रकट होता है । यही एक मात्र ज्ञान है जो स्वयं को जीतने में उपयोगी है। यही हमें बताता है कि राग एवं द्वेष आत्मा के लिए अहितकर हैं। मूलाचार में सम्यग्ज्ञान का लक्षण करते हुए कहा गया है
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चितं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे। जेण रागा विरजेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज, तं नाणं जिणसासणे।"