________________
154
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
दर्शन में श्रुतज्ञान को प्रत्येक जीव में आवश्यक रूप से स्वीकार किया गया है। यह दूसरी बात है कि वह श्रुतज्ञान मिथ्यात्वी जीव में मिथ्यात्व के कारण श्रुतअज्ञान के रूप में उपलब्ध होता है।
यह मान्यता है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है ।' तत्त्वार्थसूत्र, उसकी टीकाओं तथा जिनभद्रगणि विरचित विशेषावश्यकभाष्य में यह प्रतिपादित किया गया है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान के पश्चात् उत्पन्न होता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में प्रभावी कारण होता है। पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि में प्रश्न उठाया है कि यदि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो वह भी मति ही होना चाहिए, क्योंकि लोक में कारण के सदृश ही कार्य देखा जाता है। उत्तर में वे कहते हैं कि यह सदैव सच नहीं होता है कि कारण के सदृश ही कार्य उत्पन्न हो, क्योंकि घट की उत्पत्ति में दण्ड कारण होता है, किन्तु दण्ड कभी घड़े के रूप में परिणत नहीं होता है। इसी तरह मतिज्ञान श्रुतज्ञान में परिणत नहीं होता है, अपितु यह श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनता है। यह आवश्यक नहीं है कि मतिज्ञान के होने पर तत्सम्बद्ध श्रुतज्ञान हो ही। श्रुतज्ञान के प्रकटीकरण में श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम भी अनिवार्य है।
विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि इस विचार का समर्थन करते हैं कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। वे भाष्य में कहते हैं- 'मइपुव्वं सुयं'। वे 'पुब्व' शब्द के अनेक अर्थों का प्रतिपादन करते हैं। वे कहते हैं कि 'पूर्व' शब्द 'पृ' पालनपूरणयोः' धातु से निष्पन्न है तथा इसका प्रयोग उत्पन्न करने, रक्षा करने, पालन करने एवं पोषण करने के अर्थ में भी होता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान का करण है तथा यह उसे पुष्ट करता है एवं संरक्षा करता है।' श्रृतज्ञान मतिपूर्वक प्राप्त किया जाता है तथा यह लौकिक आप्तों द्वारा मतिज्ञानपूर्वक दूसरों तक पहुँचाया जाता है। मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान की रक्षा नहीं हो सकती।
भट्ठ अकलङ्क तत्त्वार्थवार्तिक में एक प्रश्न उठाते हैं कि यदि श्रुत मतिपूर्वक उत्पन्न होता है तो श्रुत का प्रारम्भ मानना होगा और जिसका प्रारम्भ होता है, उसका अन्त भी मानना होगा। इस तरह यह आगम मान्यता कि श्रुत का न आदि है और न अन्त, खण्डित हो जाती है। भट्ट अकलङ्क इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष अथवा अवस्था विशेष में श्रुतज्ञान का प्रारम्भ