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अनेकान्तवाद का स्वरूप और उसके तार्किक आधार
भारतीय दर्शन में सत एवं वस्तु पर्यायार्थक हैं। सभी दर्शन सत् का अपनी-अपनी दृष्टि से विवेचन करते हैं। स्वरूपतः सत् तो जैसा है, वैसा है। हमारे जानने की दृष्टि एवं कहने की प्रक्रिया में ही भेद है, इसलिए उस सत् या वस्तु की व्याख्या विभिन्न दर्शन भिन्न-भिन्न रीति से करते हैं। यह तथ्य वेद में “एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति” वाक्य से अभिव्यक्त हुआ है। अब किस दृष्टि को सम्यक् कहें एवं किसे मिथ्या? यह कठिन प्रश्न खड़ा होता है। अतः सभी दर्शन अपनी दृष्टि से किए गए विवेचन को सम्यक् एवं दूसरे दर्शन के विवेचन को दोषपूर्ण ठहराते हैं। वे यदि अनेकान्त की व्यापकदृष्टि को स्वीकार करें तो अन्य दर्शनों की विवेचना में भी किसी नय से सत्यता जानी जा सकती है। यह कार्य जैन दार्शनिकों ने किया है। वे किसी नय से अन्य दर्शनों में भी सत्यता की अन्वेषणा करते हैं तथा समग्रदृष्टि से जब विचार करते हैं तो उसमें रही हुई एकान्तदृष्टि की कमियों को भी उजागर करते हैं।
जैनदर्शन वस्तु को अनेकधर्मात्मक एवं अनन्तधर्मात्मक स्वीकार करता है। उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक की दृष्टि से वह उसे त्रयात्मक भी मानता है। वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक स्वीकार करने के कारण वह उसमें नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष, अभिलाप्य-अनभिलाप्य, भाव-अभाव आदि विरोधी धर्मों को भी अंगीकार करता है। विरोधी धर्मों के समन्वय के लिए जैन दार्शनिकों के पास द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों की दृष्टि है, जिससे दार्शनिक स्तर पर समाधान प्राप्त होता है तथा व्यवहार जगत् में भी कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती है। सत् को मात्र नित्य मानने वाले वेदान्तदर्शन तथा सत् को मात्र क्षणिक मानने वाले बौद्धदर्शन को संव्यवहार सत्य की विवेचना अलग से करनी पड़ती है, किन्तु अनेकान्तवाद में वस्तु को द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से नित्य एवं पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अनित्य मानने वाले जैन दर्शन को व्यावहारिक जगत् में कोई बाधा नहीं आती है। अनेकान्तवाद व्यवहार एवं परमार्थ दोनों की व्याख्या कर देता है। वह वस्तु की नित्यता एवं अनित्यता दोनों को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से विवेचित करता है।