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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
होती है। प्रवर्तमान व्यक्ति को उसी की प्राप्ति होती है, अन्यथा स्वरूप वाली वस्तु अर्थक्रिया में समर्थ नहीं है। पंचम तर्क- समन्तभद्र सर्वथा एकान्त का खण्डन करते हुए कहते हैं कि सर्वथा एकान्त का नियामक दृष्टान्त ही नहीं बनता है, दृष्टान्त बनने पर द्वैत या अनेकान्त की सिद्धि होती है
दृष्टान्तसिद्धावुभयोर्विवादे, साध्यं प्रसिद्धयेन्न च तादृगस्ति। यत्सर्वथैकान्तनियामि दृष्टं, त्वदीयदृष्टिर्विभवत्यशेषे।"
यदि कोई ऐसी भी वस्तु मिल जाए जो दृष्टान्त बनकर सर्वथैकान्त के अस्तित्व को सिद्ध कर दे तो सर्वथैकान्त रूप साध्य की सिद्धि हो सकती है, किन्तु ऐसी कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं है, जो सर्वथैकान्त की नियामक हो अर्थात् जो दृष्टान्त बनकर सर्वथैकान्त की सिद्धि कर सके। अनेकान्तदृष्टि साध्य, साधन और दृष्टान्त सबमें अपना प्रभुत्व स्थापित करती है। षष्ठ तर्क- क्रिया-कारकादि का व्यवहार अनेकान्तवाद में ही सम्भव है । समस्त क्रियाओं तथा कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों की सिद्धि अनेकान्तवाद में ही हो सकती है, अन्य मतों में नहीं-यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धिः क्षणिकवाद एवं नित्यैकान्त में वस्तु की उत्पत्ति एवं कारकों का अन्वय सिद्ध नहीं होता। सप्तम तर्क- कारणकार्य का सिद्धान्त भी अनेकान्तवाद में ही घटित हो सकता है, क्योंकि कारण एवं कार्य में न पूर्णतः एकता होती है और न ही पूर्णतः भिन्नता । प्रो. सातकडि मुकर्जी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है
The cause and the effect are not entirely identical, but different also. If the effect were entirely identical with the material cause, there would be no occasion for the exercise of activity to bring it into existense. If it were different the manifestation would not relate to the effect.., The effect is partially identical with the cause and different in other respects. This is the position maintained by Jaina and it has been shown to be inescapable. 34 अष्टम तर्क- एकान्तवाद में कर्म-फल-व्यवस्था नहीं बनती। एकान्त नित्यवाद एवं