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कर्म - साहित्य में तीर्थङ्कर प्रकृति
बाँधते हैं? उदय में कब आती है ? उदीरणा कब होती है और सत्ता में कहाँ-कहाँ रहती है? एतद्विषयक चिन्तन आवश्यक है। तीर्थङ्कर प्रकृति का उपार्जन
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ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र में मल्लिनाथ के प्रकरण में तीर्थंकर नाम गोत्र के उपार्जन हेतु 20 बोलों का निरूपण हुआ है। 12 वे बीस बोल हैं - ( 1-7 ) अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी - इन सातों के प्रति प्रियता, भक्ति या वात्सल्य का होना (8) ज्ञान का बारम्बार उपयोग करना ( 9 ) दर्शन सम्यक्त्व की विशुद्धि होना (10) विनय होना ( 11 ) आवश्यक क्रियाएँ ( सामायिक आदि) करना (12) शीलव्रतों का निरतिचार पालन करना (13) क्षण - लव प्रमाण काल में संवेग ( तथा भावना एवं ध्यान) का सेवन करना ( 14 ) तप करना ( 15 ) त्याग मुनियों को दान देना (16) अपूर्व अर्थात् नवीन ज्ञान ग्रहण करना ( 17 ) समाधि - गुरु आदि को साता उपजाना (18) वैयावृत्त्य करना ( 19 ) श्रुत की भक्ति करना और (20) प्रवचन की प्रभावना करना । ये सभी 20 बोल सम्यग्दर्शनी मनुष्य में सम्भव हैं। जब उसमें निर्मलता आती है तब इन 20 कारणों या इनमें से किसी के भी बार-बार आराधन से तीर्थंकर प्रकृति का उपार्जन हो सकता है।
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तत्त्वार्थसूत्र में तीर्थंकर नाम के उपार्जन हेतु 16 कारणों का ही निरूपण है । " वे 16 कारण हैं - (1) दर्शनविशुद्धि (मोक्षमार्ग में रुचि ) ( 2 ) विनय सम्पन्नता (3) शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन (4) ज्ञान में सतत उपयोग ( 5 ) सतत संवेग (6) शक्ति के अनुसार तप ( 7 ) यथाशक्ति त्याग ( 8 ) साधुओं की समाधि में योगदान (9) वैयावृत्त्य (10) अरिहन्त भक्ति ( 11 ) आचार्य - भक्ति ( 12 ) बहुश्रुत भक्ति (13) प्रवचन भक्ति ( 14 ) आवश्यक क्रियाओं में संलग्नता (15) मोक्षमार्ग (16) प्रवचन वात्सल्य ।
तत्त्वार्थसूत्र में निरूपित इन 16 कारणों को पृथक्-पृथक् रूपेण भी सम्यग्भावित किया जाये तो तीर्थंकर प्रकृति का उपार्जन सम्भव है। इन्हें तीर्थंकर प्रकृति के आनव का कारण कहा गया है। " ज्ञाताधर्मकथा में तत्त्वार्थसूत्र से चार कारण अधिक प्रतिपादित हैं, यथा- सिद्ध, स्थविर एवं तपस्वी की भक्ति तथा नये
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