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कर्म - साहित्य में तीर्थङ्कर प्रकृति
प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ करते हैं। इसी प्रसंग में एक विशेष बात यह कही गई है कि तीर्थंकर केवली अथवा श्रुत केवली के निकट ही कोई तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ करता है।'
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तीर्थंकर प्रकृति के बन्धने के सम्बन्ध में और भी अनेक तथ्य हैं, यथा
1. यदि कोई मनुष्य एक बार तीर्थंकर प्रकृति को बांधना प्रारम्भ करता है, तो वह निरन्तर ही इसका बंधन करता रहता है। 20 यह बंधन उस जीव के देवगति या नरकगति में जाने पर भी जारी रहता है । " पुनः मनुष्यगति में आने पर वह केवलज्ञान प्रकट होने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व तक इसका बंधन करता रहता है। 2 इसके निरन्तर बंधने के संबंध में दो अपवाद हैं।
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(अ) पहले नरकायु बाँधने के पश्चात् क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि प्राप्त करके कोई जीव यदि तीर्थंकर नाम प्रकृति को बाँधना प्रारम्भ करता है, तो वह मनुष्य भव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व में चला जाता है। 23 मिथ्यात्व गुणस्थान में रहता हुआ वह तीसरी नरक तक में जन्म ले सकता है । वहाँ पर्याप्त अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् वह पुनः सम्यग्दर्शनी बन जाता है। मनुष्यगति से जाने एवं नरक में अपर्याप्त रहने का यह काल भी अन्तर्मुहूर्त परिमाण होता है। इतने काल के लिए तीर्थंकर प्रकृति का बँधना रुक जाता है। शेष सभी समय यह प्रकृति निरन्तर बँधती रहती है।
(ब) तीर्थंकर नामकर्म को बाँधता हुआ जीव उपशमश्रेणि में चढ़ता है, तो वह आठवें गुणस्थान के सातवें भाग से ग्यारहवें गुणस्थान तक उपशम श्रेणि के समय तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं करता है। यह अवस्था भी एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं होती ।
इस तरह दो अपवादों को छोड़कर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध एक बार प्रारम्भ होने के पश्चात् निरन्तर होता रहता है।
(2) तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध चौथे गुणस्थान में तब होता है, जब क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव मिथ्यात्व के अभिमुख हो । मिथ्यात्व के अभिमुख वह जीव होता है, जिसने पहले ही नरक का आयुष्य बाँध लिया हो। ऐसा जीव ही