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कर्म - साहित्य में तीर्थङ्कर प्रकृति
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अबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त बताया गया है। अतः यह प्रकृति अपनी सजातीय प्रकृतियों में संक्रमित होकर भोगी जाती है। इसी प्रकार का उद्वर्तन एवं अपवर्तन भी स्वीकार किया गया है। पंचम कर्मग्रन्थ, कम्मपयडी एवं पंचसंग्रह के अनुसार तीर्थंकर प्रकृति अध्रुवबन्धिनी, अध्रुव सत्ताक, अघाती, पुण्य प्रकृति, अपरावर्तमान, जीव विपाकी, स्वानुदयबन्धिनी, क्रम व्यवच्छिद्यमान बंधोदया, निरन्तरबन्धिनी अनुदय-संक्रमोत्कृष्टा एवं उदयवती है। ___ उपर्युक्त चर्चा से विदित होता है कि अष्टविध कर्मों से मुक्त होने के लिए तीर्थकर होना आवश्यक नहीं है। सामान्य केवलज्ञानी भी मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं । अष्ट महाप्रातिहार्य एवं तीर्थप्रवर्तन की योग्यता तीर्थकर में विशिष्ट होती है, सम्भवतः इसीलिए तीर्थंकर नाम प्रकृति पृथक् से स्वीकार की गई है। जब कोई केवलज्ञानी उस पुण्य प्रकृति के उदय से युक्त होता है तो उसे तीर्थंकर कहा जाता है । तीर्थकर नाम प्रकृति का एक बार बन्ध प्रारम्भ होने के पश्चात् कतिपय अपवादों को छोड़कर चौथे से आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक निरन्तर बन्ध होता रहता है, किन्तु उदय तेरहवें सयोगी एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में सतत रहता है। तीर्थंकर प्रकृति की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान में हो सकती है, जबकि सत्ता चौथे से चौदहवें गुणस्थान तक रहती है । बद्ध नरकायुष्क जीव की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान में भी तीर्थकर प्रकृति की सत्ता अन्तर्मुहूर्त तक रह सकती है । यह उल्लेखनीय है कि तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध भी कषाय से होता है एवं वह उस अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के होता है जो मिथ्यात्व के अभिमुख हो। जघन्य स्थिति बंध आठवें गुणस्थान वाला जीव करता है। सन्दर्भ:1. 34 अतिशयों के लिए द्रष्टव्य-समवायांगसूत्र,आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर समवाय 34 2. समवायांगसूत्र, समवाय 35 3. इमं च णं सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं - प्रश्नव्याकरणसूत्र,
द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 1 4. गोयमा! अरहा ताव नियमं तित्थगरे।- व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र,शतक 20,उद्देशक 8 5. श्रमण भगवान् महावीर के पाँच कल्याणकों का उल्लेख स्थानांगसूत्र में हुआ है।
द्रष्टव्य-स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 5, उद्देशक 1