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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
गुणस्थान एवं चौथे से चौदहवें गुणस्थान तक पायी जाती है। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में तो बद्धनरकायुष्क वाले जीव की अपेक्षा से सत्ता पायी जाती है, क्योंकि जिस जीव ने नरकायु का बंध करने के पश्चात् तीर्थंकर नामकर्म का बंध प्रारम्भ किया है, वह जीव नरक के भव में जाते समय एवं वहाँ अपर्याप्त समय तक मिथ्यात्वदशा में रहता है। चौथे से आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक तो तीर्थकर नामकर्म का बंध होने के कारण इन गुणस्थानों में सत्ता रहती ही है, किन्तु उपशमश्रेणि करते समय भी आठवें गुणस्थान के छठे भाग से ग्यारहवें गुणस्थान तक तीर्थकर नामकर्म की सत्ता रहती है, क्योंकि यह काल मात्र अन्तर्मुहूर्त का होता है एवं पूर्वबद्ध तीर्थकर प्रकृति तो उस काल में भी सत्ता में रहती ही है। इसी प्रकार बारहवें क्षीणमोहनीय गुणस्थान में भी इस प्रकृति की सत्ता पूर्वबद्ध की अपेक्षा से रहती है, क्योंकि सत्ता में रहने पर ही कोई कर्म उदय में आता है।
यह उल्लेखनीय है कि तिर्यंचगति के जीव में तीर्थकर नाम कर्म की सत्ता नहीं पायी जाती है, क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म का बंध करने वाला जीव तिर्यंच गति में नहीं जाता है। इसका भी कारण यह है कि तीर्थंकर नामकर्म को बाँधने वाला जीव (पूर्व निर्दिष्ट दो अपवादों को छोड़कर) निरन्तर इस प्रकृति का बंध करता है एवं वह बद्धनरकायु के अपवाद को छोड़कर चौथे गुणस्थान से नीचे नहीं आता है। इसलिए तीर्थंकर नामकर्म को बाँधने वाला जीव तिर्यंच गति का बंध नहीं कर पाता। तिर्यंच गति का बंध प्रथम एवं द्वितीय गुणस्थान में ही होता है, उसके पश्चात् नहीं। दूसरी बात यह भी है कि तिर्यंचायु का बंध कर लेने वाला तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध नहीं करता। तीसरी एवं महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तीर्थंकर नामकर्म के बंध का प्रारम्भ मनुष्य गति में ही होता है, तिर्यंचादि अन्य गतियों में नहीं। मनुष्य से वह जीव नरक या देवगति में जाता है। इसलिए इन तीन गतियों में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता रहती है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों के अनुसार तीर्थंकर प्रकृति का अनिकाचित बन्ध करने वाला जीव तिर्यंचगति में भी जा सकता है तथा इस प्रकृति की उद्वेलना भी हो सकती है।
तीर्थकर नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोटाकोटि सागरोपम एवं