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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
तीर्थकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है। किसी भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति संक्लेश (कषायवृद्धि) से बंधती है। चाहे वह पुण्य प्रकृति हो या पाप प्रकृति। सभी प्रकृतियों की स्थिति कषाय से बँधती है। अतः तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति का बंध उस अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के होता है, जो मिथ्यात्व के अभिमुख हो। तीर्थकर प्रकृति का जघन्य स्थितिबंध आठवें गुणस्थान के छठे भाग में होता है, क्योंकि वह विशुद्ध अवस्था होती है।
(3) तीर्थंकर प्रकृति बंधने का नरकगति एवं तिथंच गतियों के बन्ध के साथ विरोध है। अर्थात् तीर्थंकर प्रकृति बधंने के पश्चात् ये दोनों गतियाँ नहीं बँधती हैं। पहले ही किसी जीव ने नरकायु बाँध लिया हो, यह तो सम्भव है, किन्तु तीर्थंकर प्रकृति बँधने के पश्चात् नरकायु का बन्धन भी सम्भव नहीं है। नरक गति एवं तिर्यंच गति तो क्रमशः पहले एवं दूसरे गुणस्थान में ही बँधती है। तीर्थकर प्रकृति बाँधने वाले जीव के केवल देवगति बँधती है। यह उल्लेखनीय है कि देवी तीर्थकर नहीं बनती है, अतः तीर्थकर प्रकृति बाँधने वाला देव ही बनता है, देवी नहीं। वह तीन किल्विषिक को छोड़कर वैमानिक देव में जा सकता है। ___ (4) जिस जीव ने पहले मनुष्यायु एवं तिर्यंचायु का बन्ध कर लिया है, उसके तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता है, किन्तु देवायु एवं नरकायु बाँधने के पश्चात् तीर्थंकर प्रकृति का बन्धन हो सकता है। धवला टीका में एक प्रश्न उठाया गया कि तिर्यंचायु बाँधने वाले को सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् तीर्थंकर प्रकृति के बाँधने में क्या बाधा है? इसका उत्तर देते हुए कहा गया कि जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ किया है, उससे तृतीय भव में तीर्थकर प्रकृति की सत्ता वाले जीवों के मोक्ष जाने का नियम है, जो देव एवं नारकी बनने पर ही सम्भव हो सकता है। तृतीय भव में मोक्ष जाने का कथन श्वेताम्बर परम्परा में भी उपलब्ध है।
(5) तीर्थकर प्रकृति का सम्बन्ध लेश्याओं से भी है। तेजो, पद्म एवं शुक्ल नामक शुभ लेश्याओं में तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो ही सकता है, किन्तु अशुभ लेश्याओं में से एक मात्र कापोत लेश्या ही ऐसी है, जिसमें तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है। यह तथ्य महाबंध, धवलाआदि ग्रन्थों में स्पष्ट प्रतिपादित हुआ है कि